________________ आगम निबंधमाला (1) अकरिस्सं चाहं (2) कारवेसुं चाहं (3) करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि / यहाँ शब्दो में स्पष्ट रूप से करण तीन और काल तीन प्रतिफलित होते हैं किंतु तीन करण और तीन योग ये अन्य शास्त्र में क्रिया के प्रकार रूप से प्रसिद्ध है / साधु और श्रावक के पापक्रिया के प्रत्याख्यान में भी तीन करण के साथ तीन योग होते ही हैं / अत: यहाँ योगों को भी अंतर्भावित समझना उपयुक्त ही है / इस प्रकार तीन शब्दों से 27 क्रियाएँ समस्त कर्मसंग्रह में कारण कही गई है और कर्म से ही संसार भ्रमण चक्र चलता है। निबंध-३ ज्ञानी, अज्ञानी, वास्तविक ज्ञानी उपरोक्त वर्णन से जिसने (1) आत्मा के अस्तित्व को समझ लिया है, स्वीकार लिया है, (2) आत्मा के संसार भ्रमण को जान लिया है, मान लिया है और (3) आत्मा कर्मों के अनुसार संसार भ्रमण करती है, (4) क्रियाओं से कर्मों की उत्पत्ति होती है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि 1. आत्मा 2. लोक 3. कर्म और 4. क्रियाएँ इन चारों को जिसने जान लिया है, मान लिया है अर्थात् इनका जो स्वरूप सर्वज्ञों ने जाना स्वीकारा है उसे जो समझता, स्वीकारता है, वह यहाँ ज्ञानी, प्रबुद्ध आत्मा कहा गया है। , अपेक्षा से अर्थात् ज्ञान और समझ की अपेक्षा से वे ज्ञानी है किंतु यदि ऐसा ज्ञान समझ हो जाने के बाद भी अर्थात् उक्त आत्म स्वरूप भान हो जाने पर भी, जो उदय भाव में बहते जाते हैं, जन्म-मरण और कर्म दुख परंपरा भोगते रहते हैं, बढाते रहते हैं, तो अप्रत्याख्यान की अपेक्षा, अविरति के कारण उनका जानना भी अपेक्षा से अनजाने के समान हो जाता है / अतः ऐसी आत्माएँ भी दूसरी अपेक्षा सेअविरति की अपेक्षा से सही ज्ञानी की गिनती में नहीं गिनी गई है / अत: अपेक्षा से उन्हें भी अपरिज्ञातकर्मा कहा गया है। ऐसे जीव संसार भ्रमण बढाते ही रहते हैं, क्रियाओं और कर्मों को जानकर उससे अलग नहीं होते हैं / यह दूसरे प्रकार की अपेक्षित अज्ञानता स्वीकार की गई है अर्थात् ऐसे प्राणी अपेक्षा से सच्चे ज्ञानी नहीं है। यथा- जिन्होंने L16 -