________________ आगम निबंधमाला खराबी सडान होती है, कोई में बाहर दिखती है, इसके भी 4 भंग हैं। ऐसे अनेक विकल्पों से यहाँ इस विषय का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य शास्त्रों में भी चिकित्सा संबंधी वर्णन प्राप्त होते हैं, यथा- (1) आचारांग सूत्र-श्रु.२, अध्य.१५ में सचित्त अचित्त जडीबूटियों संबंधी औषध उपचार का वर्णन है / वहाँ पर शुद्धअशुद्ध मंत्रबल से भी उपचार की चर्चा की गई है / (2) व्यवहार सूत्र में सर्प काटने पर, झाडा-झपटा(मंत्र विधि) कराने का संकेत किया गया है / वैसा करना स्थविरकल्पी-सामान्य साधुओं को कल्पता है / जिनकल्पी-पडिमाधारी भिक्षु को वैसा कराना निषिद्ध है। वहाँ यह भी स्पष्ट किया गया कि स्थविरकल्पी साधु को सर्पदंश का झाडा-झपटा कराने का कोई भी प्रायश्चित्त नहीं आता है / (3) बृहत्कल्प सूत्र में रोग उपशांति के लिये स्वमूत्र चिकित्सा रूप में मूत्र को पीने का एवं उससे मालिस करने का तथा जरूरी होने पर साधु-साध्वी को आपस में स्वमूत्र लेने-देने का भी कथन है। इस तरह वहाँ स्वमूत्र के पीने और लगाने रूप दोनों उपयोग कहे हैं। (4) निशीथ सूत्र में रसोई घर के जमे हुए धुंए से भी औषध उपचार किये जाने का निर्देश है तथा इसी शास्त्र में गोबर संबंधी चिकित्सा की चर्चा भी है। (5) विशिष्ट रोगातंक में उपवास चिकित्सा भी उत्तराध्ययन आदि सूत्रों से फलित होती है। अनेक असाध्य रोगों में उपवास रामबाण औषध है किंतु उसमें पूर्ण धैर्य युक्त पुष्ट संस्कारित मानस होना अत्यंत आवश्यक है। उपवास चिकित्सा में उपवास की संख्या 21,31 या 41 तक जाने पर उम्र लंबी हो तो असाध्य से असाध्य बिमारी (केन्सर आदि) भी जडमूल से समाप्त हो जाती है / छोटे-मोटे रोग प्रायः खान-पान की अशुद्धि से या विमात्रा से होते हैं, वे तो 1,2 या 3 उपवास से ही चले जाते हैं। इस उपवास चिकित्सा में गर्मपानी के सिवाय सभी खाद्य और पेय पदार्थों का एवं औषध का त्याग आवश्यक होता है / कमजोरी, श्रम की थकान आदि हो तब उपवास चिकित्सा करना निषिद्ध है / पेट की खराबी या ज्वर-बुखार में भी उपचार रूप से 1,2 या 3 उपवास करना बहुत होता है। 141]