________________ आगम निबंधमाला थावच्चा पुत्र! ऐसा तो कोई देव भी नहीं कर सकता है अर्थात् मृत्यु और बुढ़ापे से तो देव भी रक्षा नहीं कर सकता / यह तो कर्म क्षय करने से ही संभव है / तब थावच्चापुत्र ने कहा कि यदि इन दोनों का(जरा और मृत्यु को) निवारण तो अपने कर्मों के क्षय से ही हो सकता है तो हे देवानुप्रिये ! म अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति एवं कषाय से संचित पूर्व कर्मों का क्षय करने के लिये भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ / श्रीकृष्ण को थावच्चापुत्र की परीक्षा के पश्चात् जब विश्वास हो गया कि उसका वैराग्य आंतरिक है, सच्चा है तब उन्होंने द्वारिका नगरी में आम घोषणा करवा दी कि- "भगवान अरिष्टनेमि के निकट दीक्षित होने वालों के आश्रितजनों के पालन पोषण का संपूर्ण उत्तरदायित्व कृष्ण वासुदेव वहन करेंगे। थावच्चा पुत्र के साथ जो भी दीक्षित होना चाहे, निश्चिंत होकर दीक्षा ग्रहण करे।" घोषणा सुनकर एक हजार पुरुष थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रजित हुए / - इस प्रकार ज्ञातासूत्र के इस पाँचवें अध्ययन से श्रीकृष्ण महाराज की अनुपम धार्मिकता एवं धर्मदलाली-दीक्षा दलाली करने का आदर्श गुण प्रकट होता है कि वे स्वयं चतुरंगिणी सेना के साथ भगवान के दर्शन करने एवं प्रवचन सुनने गये तथा थावच्चा गाथापत्नी के द्वारा छत्र-चामर दीक्षा महोत्सव के लिये मांगने पर उसे कह दिया कि तुम सुखपूर्वक आराम से रहो, मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र का दीक्षा महोत्सव करूँगा। ऐसा कहकर वे अपनी चतुरंगिणी सेना के ठाठ के साथ शीघ्र ही थावच्चा सेठाणी के घर पहुँच गये थे और दीक्षा नहीं लेने के अपने सुझाव को थावच्चापुत्र के सचोट जवाब से नम्रता के साथ बदल भी दिया एवं उसकी दीक्षा में संमत हो गये / जो व्यक्ति स्वयं धर्मिष्ठ नहीं होता है फिर केवल परीक्षा लेने का ढोंग करता है वह तो अंत तक कुतर्क करता ही रहता है और दीक्षा लेने और देने वाले दोनों को भलाबुरा कहता रहता है। परंतु कृष्ण वासुदेव तो धर्मनिष्ठ और धर्मप्रेमी थे। दीक्षा लेने को और दीक्षा लेनेवाले को मन में कभी खराब नहीं समझते थे। अतः वडील का कर्तव्यपालन मात्र के लिये उन्होंने दीक्षा नहीं लेने का और मानुषिक सुखभोगने का थावच्चापुत्र को सुझाव दिया था। 71