________________ आगम निबंधमाला .. अपेक्षा से कथन करना नय है। दूसरी अपेक्षाओं को विषयभूत नहीं बनाना भी नय है किन्तु दूसरी अपेक्षा को लेकर विवाद कर उन सभी अपेक्षाओं या किसी अपेक्षा को गलत निरर्थक कह देना दुर्नय है। स्याद्वाद-अनेकांतवाद जैन धर्म की समन्वय मूलकता का बोधक है। वह नयों का समन्वय करता है। प्रत्येक विषय या वस्तु को अनेक धर्मों से, अनेक अपेक्षाओं से, देखकर उसका चिन्तन करना एवं निर्णय लेना, यही सम्यग् अनेकांत सिद्धांत है और इसी से समभाव सामायिक की प्राप्ति होती है। अनेकांतवाद, नय से अपनी भिन्न विशेषता रखता है। इन दोनों को एक नहीं समझ लेना चाहिये। नय अपनी अपेक्षा दृष्टि को मुख्य कर अन्य दृष्टि को गौण करके वस्तु का प्रतिपादन करता है, दूसरी दृष्टि की उपेक्षा रखता है / जब कि स्याद्वाद अनेकांतवाद सभी दृष्टियों को सम्मुख रख कर उन सभी सत्य आशयों को, वस्तु के विभिन्न धर्मों को, उन अपेक्षा से देखता है, किसी को गोण और मुख्य अपनी दृष्टि से नहीं करता है / नय मानों अपने हाल में मस्त है, दूसरों की अपेक्षा नहीं रखता है तो तिरस्कार भी नहीं करता है और अनेकांतवाद सभी की अपेक्षा रख कर उन्हें साथ लेकर उदारता से चलता है। जबकि दुर्नय स्वयं को ही सब कुछ समझ कर अन्य का तिरस्कार करता है। इस प्रकार नय, दुर्नय एवं अनेकांतवाद को समझ कर समन्वय दृष्टि प्राप्त कर समभावों रूप सामायिक को प्राप्त करना चाहिये। यह अनुयोगद्वार सूत्र के कथित चार द्वारों में चौथा नय द्वार सम्पूर्ण हुआ। इसके पूर्ण होने पर अनुयोगद्वार सूत्र पूर्ण होता है / निबंध-६८ श्रावक की 11 पडिमाओं का विश्लेषण सामान्य रूप से कोई भी सम्यग्दृष्टि आत्मा व्रत धारण करने पर व्रतधारी श्रावक कहा जाता है। वह एक व्रतधारी भी हो सकता है या बारह व्रतधारी भी हो सकता है। प्रतिमाओं में भी अनेक प्रकार के व्रत प्रत्याख्यान ही धारण किये जाते हैं, किन्तु विशेषता यह है कि इसमें जो भी प्रतिज्ञा की जाती है उनमें कोई आगार नहीं रखा जाता [ 232