________________ आगम निबंधमाला अपने गुणों से उसने नगर भर में बहुत ख्याति प्राप्त की थी। उसके मणिसागर नामक पुत्र था, वह भी सभी लक्षणों एवं गुणों से सुसंपन्न था / इकलौता पुत्र होने से उसे आजादी मिली हुई थी। दोस्तों के साथ घूमता फिरता था। उसके साथी लोग बुरे संस्कारों के थे। खोटी संगत से वह भी आवारा सा घूमने लगा। उस संगति में उसने चोरी करने का व्यसन ग्रहण कर लिया, अन्य दुर्गुणों से वह बचा रहा। चोरी के अवगुण में अत्यंत सिद्धहस्त हो गया और उसे यह आदत सी बन गई। पिता को इस बात की जानकारी हो गई कि मणिसागर चोरियाँ करके घर में सामान धन संपति भर रहा है। उसने उसे अपने पास बुलाया एवं बड़े प्यार से उसे अपने हृदय के उद्गार कहने लगा। बेटे ! आजकल तुम क्या कर रहे हो, किस कमाई से घर भर रहे हो? बोलो अपने घर में क्या कमी है ? धनदत्त के समझाने पर पुत्र ने उत्तर दिया-पिताजी! मैं.आपका पुत्र नहीं कपूत हूँ। नालायक हूँ। मैंने हमेशा चोरी करना और लोगों का खजाना खाली करना अपना प्रमुख कार्य बना लिया है / यह मैं धन, लोभ से नहीं करता हूँ परन्तु मेरी आदत बन गई है, अब मैं इसका त्याग नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त और आप जो कहो वह सब स्वीकार कर सकता हूँ। पिता ने पुनः जोर देकर समझाने का एवं चोरी छुड़वाने का प्रयत्न किया किंतु सफलता नहीं मिली। सेठ ने विचार किया इस रोग का मूल कारण है कुसंगत / अतः सुसंगत ही इसका उपाय है। यह सोचकर पिता ने कहा कि हितकर वचन नहीं मानता यह ठीक नहीं है, फिर भी दूसरी बात तो मेरी मान ले / मणिसागर ने कहाचोरी के अतिरिक्त आप जो आज्ञा दें वह सब मुझे स्वीकार है / किसी भी प्रकार की आनाकानी नहीं करूँगा। - सेठ ने उसकी दृढ प्रतिज्ञा जानकर कह दिया कि मेरे मित्र श्री मणिसागर, राजा के प्रधान मंत्री है। रोज उनके पास जाओ और कुछ समय उनकी सेवा संगति करो। इसमें किंचित भी भूल नहीं करोगे, यह पक्का नियम लेवो, बस यह मेरा अंतिम कहना मान लो / मणि सागर ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की / अब वह रोज सुसंगत में / 16