________________ आगम निबंधमाला .. जाता है / पूर्व भव के पापों की घोषणा करके वधक को दिए जाने वाले सैकड़ों प्रकार के दुःख दिए जाते हैं / (17) दुःख से संतप्त नारक जीव इस प्रकार पुकारते हैं- "हे बंधु ! हे स्वामिन ! हे भ्राता ! अरे बाप! हे तात ! हे विजेता ! मुझे छोड़ दो, मैं मर रहा हूँ, मैं दुर्बल हूँ, मैं व्याधि से पीड़ित हूँ, आप क्यों निर्दय हो रहे हो, मेरे उपर प्रहार मत करो और थोड़ा सांस तो लेने दो, दया कीजिए, रोष ना कीजिए, मैं जरा विश्राम ले लूँ, मेरा गला छोड़ दीजिए, मैं मरा जा रहा हूँ" इस तरह दीनता पूर्वक प्रार्थना करता है। (18) परमाधामी उसे लगातार पीड़ा पहुँचाते हैं / प्यास से पीड़ित होकर पानी मांगने पर तप्त लोहा सीसा पिघाल कर देते हैं और कहते हैं लो ठंडा पानी पीओ और फिर जबरदस्ती मुँह फाड़ कर उनके मुख में सीसा उड़ेल देते हैं। इस तरह परमाधामी उन्हें घोरातिघोर मानसिक शारीरिक दुःख और वाचिक प्रताड़ना करते रहते हैं / (19) ज्वाजल्यमान तप्त लोहमय रथ में बैल की जगह जोत कर चलाया जाता है, भारी भार वहन कराया जाता है, कंटकाकीर्ण मार्ग में, तप्त रेत में चलाया जाता है / (20) वे नारकी जीव स्वयं भी विविध शस्त्रों की विकृर्वणा करके परस्पर अन्य नैरयिकों के महा दु:खों की उदीरणा करते रहते हैं / (21) भेड़िया, चीता, बिलाव, सिंह, व्याघ्र, शिकारी कुत्ते, कौवे आदि के रूप बनाकर भी नैरयिकों पर परमाधामी देव आक्रमण करते रहते हैं / शरीर को फाड़ देते हैं, नाखूनों से चीर देते हैं, फिर ढंक कंक गिद्ध बने नरकपाल उन पर झपट पड़ते हैं। कभी जीभ खेंच लेते हैं, कभी आंखे बाहर निकाल देते हैं / इस प्रकार की यातनाओं से पीड़ित नारक जीव कभी ऊपर उछलते हैं, कभी चक्कर काटते हैं एवं किंकर्तव्य विमूढ़ बन जाते हैं / इस प्रकार वे नारक जीव अपने पूर्वकृत हिंसक प्रवृत्तियों का दारूण फल भोगते हैं। इन भयानक करूणाजनक यातनाओं को जानकर विवेकी पुरुष को मानव भव में बेभान बन कर हिंसा कृत्यों में तल्लीन नहीं होना चाहिये / किन्तु सावधान होकर अहिंसक जीवन जीने का दृढ संकल्प करना चाहिये। | 158