________________ आगम निबंधमाला .. मन्दिरों में पूजा प्रतिष्ठा की जाती है। ये सब प्रवृत्तियाँ लौकिक देवों की भक्ति रूप में लौकिक आशा चाहनाओं से की जाती है। वीतराग धर्म तो लौकिक चाहनाओं से परे होकर आत्मसाधना करने का है। इसकी साधना करने वाला साधक पाँच पदों में स्थित आत्माओं को ही आध्यात्म की अपेक्षा नमस्करणीय समझता है। ए वं वंदन नमस्कार करता है। शेष किसी को भी वंदन नमस्कार करना वह अपना लौकिक, व्यवहारिक एवं परंपरागत आचार मात्र मानता है। उस वंदन या भक्ति में वह धर्म की कल्पना को नहीं जोड़ता है। कई भद्रिक साधु-साध्वी या श्रावक श्राविकाएँ ऐसे लौकिक आशा युक्त भक्ति के आचारों को धर्म का वाना दे बैठते हैं यह उनकी व्यक्तिगत अज्ञान दशा की भूल है। निबंध-४३ नरक-तिर्यंच गति के दुःख प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रथम हिंसा अध्ययन में हिंसक पापी जीवों के भावी दु:खों का वर्णन इस प्रकार किया गया है- विविध हिंसा कृत्यों में संलग्न जीव उन कृत्यों का जीवनभर त्याग नहीं करता है एवं उसी हिंसक अवस्था में ही मर जाता है तो उसकी दुर्गति होती है, जिससे वह नरक गति में या तिर्यंच गति(पशु योनि) में उत्पन्न होता है जहाँ संपूर्ण जीवन दुःख ही दुःख में व्यतीत करता है / नरक के दुःख :(1) वहाँ सदा घोर अंधकार रहता है / (2) उम्र कम से कम दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट 33 सागरोपम की होती है / (3) भूमि का स्पर्श एक साथ हजार बिच्छु डंक देवे वैसा होता है / (4) सर्वत्र भूमि पर मांस, रूधिर, पीव, चर्बी आदि घृणास्पद वस्तुओं जैसे पुदगलों का कीचड़ सा बना रहता है / (5) भवनपति जाति के परमाधामी देव जाकर वहाँ नैरयिकों को औपद्रविक दुःख देते रहते हैं और वे देव उसमें ही आनंद मानते हैं / (6) अन्यान्य गलियों के कुत्तों की तरह वे नैरयिक एक दूसरे को देखते ही झगड़ते हैं और आपस में वैक्रिय शक्ति .से दारूण दु:ख देते हैं। | 156