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________________ आगम निबंधमाला . आगे बढ़ते निवृतिमय साधना में जीताचार आदि का त्याग करना भी आवश्यक और योग्य हो जाता है। अतः जीताचार, लोक-व्यवहाराचार एवं धर्माचरण का विवेक पूर्वक निर्णय एवं समाचरण करना चाहिए। गहस्थ जीवन को किसी भी अविवेक पूर्ण एकांत में नहीं डालना चाहिये। वहाँ संसार व्यवहार एवं धर्म कर्तव्यों का विवेकपूर्वक समन्वय किया जाना ही उपयुक्त एवं समाधिकारक होता है। इसी कारण प्रथम व्रतधारी, प्रसंग आने पर संग्राम आदि में पंचेन्द्रिय मानव की जीवन लीला समाप्त करते हुए भी अपनी समकित एवं श्रमणोपासक पर्याय में जीवितसुरक्षित रह सकता है। (17) श्रमणों की यह आचार विधि है कि वे किसी प्रकार का नृत्य नाटक वांदित्र तथा अन्य दर्शनीय दृश्यों एवं स्थलों को देखने का या देखने जाने का संकल्प भी नहीं करे / ऐसा निषेध आचारांग सूत्र में है एवं प्रायश्चित्त विधान निशीथ सूत्र में है / साधु का, स्वयं अपनी भावना एवं सावधानी तथा विवेक से अपना आचार पालन करना कर्तव्य है। किन्तु अन्य कोई अपनी आग्रह पूर्ण इच्छा या संकल्प या रूचि से कुछ करना चाहे, साधु की इच्छा या निर्देश को स्वीकारने का विकल्प उसके मन में न हो ऐसे आग्रही भावों वाले व्यक्ति के साथ तिरस्कार वृत्ति या हठाग्रह या दंडनीति स्वीकार न करते हुए, साधुको उपेक्षा भाव तटस्थ भाव रखना ही पर्याप्त होता है। सूर्याभदेव ने गौतमादि अणगारों को अपनी ऋद्धि और नाटक दिखाने का निवेदन किया। प्रभू ने तीन बार कहने पर भी उसे स्वीकृति नहीं दी और उसकी मनोवृत्ति को जानकर निषेध या तिरस्कार भी नहीं किया। न ही कोई अन्य श्रमण ने बीच में बोलकर उससे कोई असद्व्यवहार किया। बिना स्वीकृति के ही सूर्याभ ने अपने निर्णयानुसार कृत्य किया। अतः ऐसे ही कोई प्रसंगों के उपस्थित होने पर श्रमण को उचित लगे तो उपदेश संकेत या अपने आचार एवं श्रावक के कर्तव्य का कथन कर देना चाहिए एवं कहना निरर्थक लगे तो उपेक्षा ही रखनी चाहिये। किन्तु हुकुमत, तिरस्कर, बहिष्कार, दुर्व्यवहार या बलात्कार आदि के कर्तव्य कदापि नहीं करना एवं नहीं करवाना चाहिए और ऐसे दुर्व्यवहारों का / 150
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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