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________________ आगम निबंधमाला अतः अत्यंत सचेत सतर्क सावधान बुद्धि एवं विवेकबुद्धि से काम लेना चाहिए। राजाओं की ऋद्धि का एवं देवताओं की ऋद्धि का वर्णन भी होता है, राणियों का, अन्य स्त्रियों का एवं भोग सामग्रियों का वर्णन भी होता है, धर्माचरणों श्रावकाचारों, श्रमणचर्याओं का वर्णन भी होता है, तो कई जीताचारों, लोकाचारों, लोकव्यवहारों का भी वर्णन होता है एवं कुसिद्धांतों कुतर्कों का एवं महाअधर्मी आत्माओं का, क्रूर प्रवृत्तियों का वर्णन भी होता है, निरर्थक ही खोटे कर्तव्य और विष देने रूप दूसरों का अहित करने की प्रवृत्तियों का वर्णन भी आता है। ऐसे वर्णनों से चिंतनपूर्वक एवं आचार शास्त्रों भगवदाज्ञाओं को आगे रखते हुए समन्वय पूर्वक ही आचरणीय तत्त्वों का निर्णय लेना चाहिए। किंतु हेय ज्ञेय तत्त्वों से खोटे निर्णय नहीं लेने चाहिये। इसके अतिरिक्त कथा में वर्णित व्यक्तियों में से किसी पर भी . रागभाव या द्वेषभाव या पक्ष-विपक्ष के विचारों के भाव, निंदा एवं कर्मबंध के परिणाम नहीं आने चाहिए / तटस्थ ज्ञेय दृष्टि से ही उन कथानकों का परिशीलन करना चाहिए। उन प्रसंगों के भावावेश में नहीं बह जाना चाहिए। क्योंकि कथानकों के वर्णन में कई प्रकार के उतारचढ़ाव होने वाले वर्णनों का गुंथन होता है। उससे अपने समभाव, तटस्थ भाव, माध्यस्थ भाव को सदा सुरक्षित एवं पुष्ट रखना चाहिये। अन्यथा निरर्थक के कर्मबंध से भारी होना हो जाता है। कथानक तो घटित हो चुके होते हैं। चाहे प्रस्तुत सूत्रगत प्रदेशीराजा और सूर्यकांता राणी हो अथवा अन्य रामायण महाभारत के कोई भी चारित्रनायक राम-रावण एवं कौरव पाँड़व आदि हो। इनके विषय में अब अपना कोई संकल्प-विकल्प करना निरर्थक होता है। इसलिये ही यह कहा गया है कि ऐसे कथा वर्णनों के अध्ययन में अत्यंत सावधान एवं विवेक बुद्धि रखनी चाहिये। (16) जीताचार या लोक व्यवहाराचार एवं धार्मिक आचार इनका अपना अलग-अलग स्थान एवं क्षेत्र है / गृहस्थ श्रमणोपासक के जीवन में या दैविक जीवन में ऐसे कई जीताचार लोक व्यवहाराचार होते हैं वे अपने स्थान पर, अपनी सीमा तक, उनके लिये उपयुक्त होते हैं / किन्तु उनके जो धार्मिक आचार होते हैं वे बिलकुल स्वतंत्र संवर-निर्जरा एवं व्रत प्रत्याख्यान, दया-दान, 148
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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