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________________ आगम निबंधमाला निबंध-३९ केशीश्रमण के साथ प्रदेशी राजा का संवाद केशीश्रमण तो महाज्ञानी थे। उन्होंने ज्ञान के बल से बुद्धिमत्ता, विचक्षणता एवं निर्भीकता से काम लिया। राजा भी बहुत बुद्धिमान और अपने विचारों का पक्का था। उसने सभा में पहुँचते ही वंदन किये बिना खड़े-खड़े ही केशीश्रमण से पूछना प्रारंभ कर दिया- आप आधोवधिज्ञानी हैं क्या, आप प्रासुक अन्न भोजी हैं क्या ? केशीश्रमण- हे राजन् ! जिस प्रकार वणिक लोग दाण(कर) की चोरी करने के विचार से सीधा मार्ग नहीं पूछते / उसी तरह तुम भी विनय व्यवहार नहीं करने की भावना से अयोग्य रीति से प्रश्न कर रहे हो। हे राजन् ! मुझे देखकर तुम्हारे मन में ये संकल्प उत्पन्न हुए कि जड़ मुंड मूर्ख लोग जड़मुड़ मूर्ख की उपासना करते हैं, इत्यादि.? . राजा प्रदेशी- हाँ ऐसे विचार आएं पर आपने कैसे जान लिए? केशीश्रमण- शास्त्र में पाँच ज्ञान कहे हैं। उसमें से चार ज्ञान मुझे हैं जिसमें मनःपर्यवज्ञान द्वारा मैं जानता हूँ कि तुमने ये संकल्प किये। राजा- मैं यहाँ बैठ सकता हूँ? केशीश्रमण- यह तुम्हारा बगीचा है तुम ही जानो। तब प्रदेशी राजा चित्त सारथी के साथ बैठ गया / राजा- भंते! आत्मा शरीर से अलग है या शरीर ही आत्मा है ? केशीश्रमण- राजन् ! शरीर ही आत्मा नहीं है किन्तु आत्मद्रव्य शरीर से भिन्न है। आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान एवं श्रद्धा स्वसंवेदन से हो सकता है। संसार में जितने भी प्राणी है उन्हें सुख और दुःख का, धनवान और निर्धन होने का, मान और अपमान का, जो संवेदन होता है या अनुभूति होती है, वह आत्मा को ही होती है शरीर को नहीं। शरीर तो जड़ है। चेतन की शंका करे, चेतन पोते आप। . शंका का करण हार, जड़ नहीं है यह साफ // आत्मा है या नहीं यह संशय भी जड़(शरीर) को नहीं होता / 130
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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