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________________ आगम निबंधमाला (5) अत: यथावसर संयोगवश जीवन को धर्म संस्कारमय बनाने का भी लक्ष्य रखना चाहिए। धर्म के संस्कार एवं आत्मबोध जीव को दुःख में भी सुखी रहने की अनुपम कला देने वाला है / संकट की घड़ियों में भी अंतर्मन में प्रसन्नचित्त रहना धर्म ही सिखाता है / / (6) धर्म आचरण के अभ्यास एवं चिंतन से अनंत आत्मशक्ति एवं उत्साह जागृत होता है / ऐसा धर्मनिष्ठ व्यक्ति कर्मोदय को अंजुश्री के समान रो-रोकर नहीं भुगतता है किन्तु गजसुकुमाल मुनि, अर्जुनमाली अणगार आदि की तरह शान्तिपूर्वक अपने कर्ज को चुकाकर सुखी बन जाता है। (7) इस प्रकार इस संपूर्ण दुःख विपाक में हिंसक, क्रूर, भोगासक्त, स्वार्थान्ध, मांसाहारी एवं शराबखोरों के जीवन चित्रण द्वारा इन कृत्यों का कटु परिणाम बताया गया है एवं शुद्ध, सात्विक, व्यसन मुक्त तथा पाप मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा की गई है / निबंध-३३ सुखविपाक के अध्ययनों से शिक्षा-ज्ञातव्य (1) सुपात्र दान देने से सम्यकत्व प्राप्ति और संसार परित्त करना, समझना चाहिए / मनुष्यायु का बंध जीवन के अन्य क्षणों में होना समझना चाहिए। क्यों कि संसार परित्तिकरण सम्यकत्व प्राप्ति के अनंतर होता है और सम्यकत्व प्राप्ति के समय या सम्यक्त्व की मौजुदगी के समय कोई भी मनुष्य मनुष्यायु का बंध नहीं करता है। यह भगवतीसूत्र में वर्णित सैद्धान्तिक तत्त्व है। अतः जीवन के अन्य क्षणों में आयु बंध मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है / संक्षिप्त पाठों में, वर्णन पद्धति में कभी दूरवर्ती वर्णन भी निकट हो जाते हैं और निकटवर्ती वर्णन भी दूर हो जाते हैं यह स्वाभाविक है किन्तु अर्थ करने में या समझने में आगम अनुभवी विद्वानों को विवेक रखना आवश्यक समझना चाहिए अर्थात् अन्य आगम तत्त्वों से अबाधित अर्थ-तात्पर्यार्थ कर लेना चाहिये / ... संक्षिप्त पाठों के विषय में या वर्णकों के विषय में इस प्रकार की विवेक बुद्धि नहीं रखने पर अनेक आगम स्थलों में कई असमन्वय |115/
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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