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________________ आगम निबंधमाला चारित्र और उससे प्राप्त जो मोक्ष सुख है वह तो सब में समान विभक्त हो जायेगा। जो तुम दुष्कर क्रिया कलाप करते हो उस संयम का लाभ हमें सुख से बैठे ही स्वतः हो जायेगा / सारार्थ- इस तरह मुख्यतया आगम निरपेक्ष स्वमति परूपण करने वाला साधु ही "यथाछंद" कहलाता है। ___ पार्श्वस्थादि ये कुल दस दूषित आचार वाले कहे गये हैं / आगम के प्रायश्चित वर्णन अनुसार इनकी भी तीन श्रेणियाँ बनती हैं- 1. उत्कृष्ट दूषितचारित्र, 2. मध्यम दूषित चारित्र, 3. जघन्य दूषित चारित्र / 1. प्रथम श्रेणी में- "यथाछंद" का ग्रहण होता है / इसके साथ वन्दन व्यवहार, आहार, वस्त्र, शिष्य आदि का आदन-प्रदान व गुणग्राम करने का, वाचना देने लेने का गुरूचौमासी प्रायशिचत्त आता है / 2. दूसरी श्रेणी में- पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यक इन पाँच का ग्रहण होता है / इनके साथ वन्दन व्यवहार, आहार, वस्त्रादि का आदान-प्रदान व गुणग्राम करने का, वांचणी लेने-देने का लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है व शिष्य लेने-देने का लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / 3. तृतीय श्रेणी में- काथिक, प्रेक्षणिक, मामक और संप्रसारिक, इन चार का ग्रहण होता है / इनके साथ वन्दन व्यवहार, आहार-वस्त्र आदि का आदान-प्रदान व गुणग्राम करने का लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है / शिष्य लेन-देन का कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है तथा वांचणी लेन-देन का भी प्रायश्चित्त नहीं है / प्रथम श्रेणी वाले की प्ररूपणा अशुद्ध है / अत: आगम विपरीत प्ररूपणा वाला होने से वह उत्कृष्ट दोषी है / ___ द्वितीय श्रेणी वाले महाव्रत, समिति, गुप्तियों के पालन में दोष लगाते हैं और अनेक आचार सम्बन्धी सूक्ष्म-स्थूल दूषित प्रवृत्तियाँ करते हैं, अत: ये मध्यम दोष है / तीसरी श्रेणी वाले एक सीमित तथा सामान्य आचार-विचार में दोष लगाने वाले हैं, अत: ये जघन्य दोषी हैं / अर्थात् कोई केवल 84]
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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