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________________ आगम निबंधमाला (11) जहाँ दो राज्यों में आपस में विरोध चल रहा हो वहाँ नहीं जाना या अनार्य क्षेत्रो मे नही जाना आदि नियम करना अयुक्त है / क्योकि परीषह तो सहन करना ही है और शरीर ममत्व तो दीक्षा ली जभी छोड दिया जाता है। तो "वहाँ नहीं जाना-वहाँ नहीं जाना" आदि निर्देशों की क्या आवश्यकता है ? (12) उद्गमादि दोष से शुद्ध वस्त्र पात्र हो तो चौमासे में क्यों नहीं लेना ? इसमें क्या दोष है ? ममत्व भाव न हो तो / (13) सदा एक जगह साधु को रहने में क्या दोष, है ? बल्कि विचरने में अनेक दोष है। (14) कोई भी दोष लगाये बिना गृहस्थ द्वारा लाया गया आहार वस्त्र ग्रहण करने में कोई दोष नही है / (15) अज्ञात घरों से थोड़ा थोड़ा लेते हए घमने में भूख प्यास परिश्रम (थकान) आदि अनेक दोष होते हैं, अत: भक्ति वाले घरों में ही निर्दोष आहार ग्रहण कर लेना चाहिए। इत्यादि आगम विपरीत स्वछंद मति परूपणा के सैकड़ों हजारों विकल्प हो सकते हैं यथासम्भव विवेचन समझ लेना चाहिए / अंत में स्वच्छंद प्ररूपणा को भाष्य में एक “रूपक" के द्वारा बताया है एक गृहस्थ के चार पुत्र थे। पिता ने चारों पुत्रों को कहा खेत में जाओ और खेती का कार्य करो / उसमें से एक पुत्र पिता की आज्ञा अनुसार ही खेत के कार्य में लग जाता है। दूसरा गांव के बाहर जाकर बगीचे में ठंडी छाया में आराम करता है / तीसरा गांव में ही मंदिर आदि में जुआ आदि खेलने लग जाता है / चौथा घर में ही रह कर कुछ भी करता रहता है। - किसी समय पिता काल कर जाने से धन चारों को संविभाग में मिल गया। जुआ खेलने वाले को भी और मेहनत करने वाले को भी। पहले पुत्र के समान कल्प मर्यादाओं का पालन करने वाले उद्यत विहारी-शुद्धाचार पालने वाले हैं। दूसरे पुत्र के समान नित्य एक स्थान पर रहने वाले हैं / तीसरे पुत्र के समान पासत्था आदि है / चौथे पुत्र के समान गृहस्थ श्रावक है / तीर्थंकर रूपी पिता का धन जो ज्ञान दर्शन
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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