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________________ आगम निबंधमाला नहीं है / तो भी लोग आग्रह में पडी बात के लिये ज्यों त्यों करके कुछ भी लगा देने का श्रम करते है, किंतु- 'मिल गया चाबुक का तोडा, घटे फिर लगाम और घोडा' वाली कहावत चरितार्थ करते हैं / अतः जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की बात तो उक्त कहावत के समान नासमझी की होती है। श्रावक-साधुपन भी नहीं है तो संवत्सरी का वहाँ कोई अर्थ नहीं है। सार यह है कि संवत्सरी संबंधी कुछ स्पष्ट कथन निशीथ सूत्र के उन्नीसवें उद्देशक में है और उसी की व्याख्या में भादवा सुदी पंचमी कही है / परंपरा भी जिसकी साक्षी है तथा कालकाचार्य की जो घटना प्रचलित है उसमें उन्होंने भी राजा को अपनी संवत्सरी मनाने के कथन में भादवा सुदी पंचमी का ही निरूपण किया था। फिर राजा के आग्रह से एक दिन पहले भादवा सुदी चौथ को परिस्थितिवश राजाज्ञा से उस राजधानी के चातुर्मास के लिये ही की थी। यह वर्णन भी ग्रंथों में है। इससे भी भादवा सुदी पंचमी की प्राचीनता एवं महत्ता सिद्ध होती है / इस घटना में भी अधिकमास संबंधी या तिथि घट-वध संबंधी या प्रतिक्रमण के समय के घडी पल संबंधी कोई चर्चा विचारणा नहीं है। अत: लौकिक पंचांग में लिखी भादवा सुदी पंचमी (ऋषि पंचमी) तर्क विना स्वीकार कर संवत्सरी पर्व मनाना श्रेयस्कर होता है। आगम काल से जिस निश्चित तिथि का नामोल्लेख प्राप्त हो रहा है, उससे अन्य कोई भी तिथि को अर्थात्(पहले या पीछे) संवत्सरी करने पर उस निशीथ सूत्र के पाठ से प्रायश्चित्त आता है / फिर भले अपने गुरु या परंपरा के नाम से या बहुमति के नाम से कोई कभी भी करके सच्चाई का संतोष माने तो वह स्पष्ट ही आगम भावों की उपेक्षा और आत्मवंचना बनती है / यह सिद्धांत की बात है। सामान्यतया 'सोही उज्जुय भूयस्स' शुद्धि सरल आत्मा की होती है और शुद्धात्मा में धर्म टिकता है, अत: चर्चाविवाद में जो अपनी पहुँच नहीं हो तो सरलता के साथ धर्म भावों की एवं त्याग-तप की वृद्धि करना ही कल्याण का मार्ग है। अत: सामान्य जन के लिये विवाद में पडे बिना शांत-प्रशांत भावों से हृदय की पवित्रता से संवत्सरी पर्व की आराधना करने में प्रवृत्त रहना चाहिये। विशेष ज्ञानी आत्माओं को सत्य निष्ठा के साथ आगम प्रमाणों की विचारणा करनी चाहिये। / 216 AM
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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