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________________ आगम निबंधमाला निबंध-६० - सुभाषित संग्रह : उत्तराध्ययन सूत्र अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो / अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य // [अध्य.१,गाथा- 15] अर्थ- आत्मा का ही दमन करना चाहिए, आत्मा ही दुर्दम है, आत्मा का दमन करने वाला ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है / चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि य जन्तुणो / माणुसत्तं सुइ सद्धा, संजमंमि य वीरियं // [अध्य.३,गाथा-१] अर्थ- मोक्ष के हेतु भूत चार अंग परम दुर्लभ है, मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम / सोही उज्जूय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई, निव्वाणं परमं जाई, घय सित्तिव्व पायवे // [अध्य.३, गाथा-१२] अर्थ- जो पूर्ण सरल होता है उसी की शुद्धि होती है / धर्म वहीं ठहरता है जो शुद्ध हो / घत से अभिशिक्त अग्नि की भाँति परिनिर्वाण को वही प्राप्त होता, जहाँ धर्म ठहरता है। वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा परत्था / दीवप्पणढे व अणंत मोहे, णेयाउयं दद्रुमदद्रुमेव // [अध्य.४,गाथा-५] अर्थ- प्रमत्त मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता, अंधेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो उसकी भाँति अनंत मोह वाला प्राणी, पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता / जहा लाहो तहा लोहो, लाहो लोहो पवडढ़इ / दो मास कयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं // [अध्य.८,गाथा-१७] अर्थ- जैसे लाभ बढ़ता जाता है वैसे लोभ बढ़ता जाता है, दो माशे * सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ों से भी पूरा नहीं हुआ / कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिढइ लम्बमाणए / / एव मणुयाण जीविय, समय गोयम मा पमायए॥ [अध्य.१०,गाथा-२] |217
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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