________________ आगम निबंधमाला भ्रष्ट होना कहा है तथा रात्रि भोजन के दोषों का स्पष्टीकरण किया है। 3. दशवैकालिक अ. 4 में- पाँच महाव्रत के साथ रात्रि भोजन विरमण को छट्ठा व्रत कहा है। 4. दशवैकालिक अ. 8 में- सूर्यास्त से सूर्योदय तक अर्थात् रात्रि में आहार की मन से भी चाहना करने का निषेध है / . 5. उत्तराध्ययन अ. 19 गा. 31 में- संयम की दुष्करता के वर्णन में चारों प्रकार के आहार का रात्रि में वर्जन करना अत्यंत दुष्कर कहा है। 6. बहत्कल्प उ. 1 में- रात्रि या विकाल(संध्या) के समय चारों प्रकार के आहार ग्रहण करने का निषेध है / . 7. बहत्कल्प उ. 5 में- कहा गया है कि आहार करते समय ज्ञात हो जाय कि- सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है तो मुंह म रखा हुआ आहार भी निकाल कर परठ देना चाहिये / और वहाँ पर उसे खाने का प्रायश्चित्त कहा है तथा रात्रि में आहार-पानी युक्त उद्गाल आ जाए तो उसे निगलने का भी प्रायश्चित्त कहा गया है। 8. दशा. द. 2 तथा समवायांग स. 21 में- रात्रि भोजन करना "शबल दोष" कहा है। 9. बहत्कल्प उ. 4 में- रात्रि भोजन का अनुद्घातिक(गुरु) प्रायश्चित्त कहा है। 10. ठाणाग अ. 3 तथा अ. 5 में- रात्रि भोजन का अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहा है। 11. सूयगडांग सूत्र श्रु. 1 अ. 2. उद्दे. 3 में- रात्रि भोजन त्याग सहित पाँच महाव्रत परम रत्न कहे गये हैं, जिन्हें साधु धारण करते हैं / इस प्रकार यहाँ महाव्रत के तुल्य रात्रि भोजन विरमण का महत्त्व कहा गया है। 12. सूयगडाग सूत्र अ.६ वीरस्तुति में- कहा गया है कि भगवान् महावीर स्वामी ने तप के लिए और दुःखो का नाश करने के लिए रात्रि भोजन का त्याग किया था / 13. उत्तराध्ययन सूत्र अ. 32 में-- रात्रि भोजन के त्याग से जीव का आश्रव घटना एवं अनाश्रव होना कहा गया है / | 174 -