________________ 14 वर्ण, जाति और धर्म किसी भी प्रकारके आचार धर्मसे सर्वथा शून्य हों ऐसी न तो आगमकी आशा ही है और न यह बात बुद्धिग्राह्य ही हो सकती है। इसलिए इन खण्डोंमें धर्मकी प्रवृत्ति नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता। ... ___षटखण्डागम और कषायप्राइतके अभिप्रायानुसार पन्द्रह कर्मभूमियोंमें क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निर्देश हम पहले कर आये हैं। इस प्रसङ्गसे आये हुए सूत्रका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने यह स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है कि एक तो ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें स्थित सब जीव दर्शनिमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं करते। दूसरे भोगभूमिके जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं करते, केवल पन्द्रह कर्मभूमिके मनुष्य ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं यह दिखलानेके लिए सूत्रमें 'पन्द्रह कर्मभूमियोंमें' पदका निर्देश किया है / इन पन्द्रह कर्मभूमियोंमें आर्य और म्लेच्छ सभी खण्ड गर्भित हैं। यहाँ केवल आर्यखण्ड हो नहीं लिए गये हैं उसका परिज्ञान षटखण्डागमके मूल सूत्रसे तो होता ही है। धवला टीकाके उक्त उल्लेखसे भी उसका समर्थन होता है। सोचनेकी बात है कि देव नरकोंमें तथा मध्य लोकके अन्य द्वीप-समुद्रोंमें जाकर धर्मोपदेशं करें और उसे सुनकर नारकी सम्यक्त्वको स्वीकार करें तथा तिर्यञ्च सम्यक्त्व सहित संयमासंयमको धारण करें यह तो सम्भव माना जाय पर म्लेच्छ खण्डोंमें जाकर किसीका वहाँ के मनुष्योंको धर्मोपदेश देना और उसे सुनकर उनका सम्यक्त्वको या सम्यक्त्व सहित संयमासंयम और संयमको धारण करना सम्भव न माना जाय, भला यह कैसे सम्भव हो सकता है ? वहाँके रहनेवाले मनुष्योंके मनुष्यगति नामकर्मका उदय है, वे संज्ञी हैं, पञ्चेद्रिय हैं और पर्याप्त हैं / वह क्षेत्र भी कर्मभूमि है / ऐसी अवस्थामें वहाँसे आर्यखण्डमें आकर वे सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमको धारण कर सकें और वहाँ न कर सके ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता / आगममें सिद्ध होनेवाले जीवोंके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए स्फुट कहा है कि 'लवणसमुद्र सिद्ध सबसे