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________________ वर्ण, जाति और धर्म अर्थ पन्द्रह कर्मभूमियोंके इस मध्यके खण्डको छोड़कर शेष पाँच खण्डोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य किया है। ये पाँच खण्ड कर्मभूमिके अन्तर्गत हैं, इसलिए इन्हें यहाँ अकर्मभूमिज क्यों कहा है इसका समाधान करते हुए वहाँ पर कहा गया है कि इन खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए इन्हें अकर्मभूमिज कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है। इस पर यह शंका हुई कि यदि इन खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति नहीं है तो यहाँ के निवासी संयमको कैसे धारण कर सकते हैं ? इसका वहाँ पर दो प्रकारसे समाधान किया गया है / प्रथम तो यह कि दिशाविजयके समय चक्रवर्ती के स्कन्धाधारके साथ जो म्लेच्छ राजा मध्यके खण्डमें आकर चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं उन्हें संयमको धारण करनेमें कोई बाधा नहीं आती। अथवा कहकर दूसरा अर्थ यह किया गया है कि जो म्लेच्छ राजाओंकी कन्याएँ चक्रवर्ती आदिके साथ विवाही जाती हैं उनके गर्भसे उत्पन्न हुए बालक मातृपक्षकी अपेक्षा यहाँ पर अकर्मभूमिज कहे गये हैं, इसलिए भी अकर्मभूमिजोंमें संयमको धारण करनेकी पात्रता बन जाती है। लब्धिसार क्षपणासारमें कर्मभूमिजका अर्थ आर्य और अकर्मभूमिजका अर्थ म्लेच्छ करनेका यही कारण है। तथा इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर केशववर्णीने भी अपनी लब्धिसार क्षपणासारकी टीकामें यह अर्थ स्वीकार किया हैं। . यह बात तो स्पष्ट है कि जो अकर्मभूमि अर्थात् भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं वे संयमासंयम और संयमको धारण नहीं कर सकते, इसलिए कषायप्राभृतचूर्णिमें आये हुए अकर्मभूमिजका अर्थ भोगभूमिज तो होना नहीं चाहिए / बहुत सम्भव है कि इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर आचार्य जिनसेनने कर्मभूमिजका अर्थ आर्य और अकर्मभूमिजका अर्थ म्लेच्छ किया है। किन्तु इस कथनसे जो विप्रतिपत्ति उत्पन्न होती है उसका निर्वाह कैसे हो, सर्व प्रथममें यह बात यहाँ पर विचारणीय है। बात यह है कि पाँच भरत, पाँच विदेह और पाँच ऐरावत ये पन्द्रह
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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