________________ 81 नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्मीमांसा . गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् / अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोनिनो मुनेः // 33 // अर्थात् निर्मोही गृहस्थ मोक्षमार्गी है परन्तु मोही मुनि मोक्षमार्गी नहीं है, अतः मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है / ___परिणामोंकी बड़ी विचित्रता है, क्योंकि अन्तरङ्ग कार्यकी सम्हाल परिणामोंसे ही होती है / केवल बाह्य कारणकूट सहायक नहीं होते / सिद्धान्त ग्रन्थोंमें योग्यताका बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। कहाँ तो मनुष्य पर्याय और कहाँ तिर्यञ्च पर्याय / उसमें भी सम्मूर्छन तिर्थञ्च पर्याय तो उससे भी निकृष्ट होती है। फिर भी सम्मूर्छन तिर्यञ्च पर्याप्त होने के बाद ही संयमासंयम भावको प्राप्त कर सकता है। किन्तु मनुष्यमें ऐसी योग्यता नहीं कि वह पर्याप्त होनेके बाद तत्काल इसे प्राप्त कर सके। मनुष्यको गर्भसे लेकर आठ वर्ष लगते हैं तब कहीं वह संयमासंयन या संयमभावको ग्रहण करनेका पात्र होता है। - संयमभाव (मुनिधर्म) की प्राप्ति आदिके विषयमें भी वहीं सब व्यवस्था है जिसका उल्लेख संयमासंयमभावकी प्राप्ति आदिके प्रसङ्गसे कर आये हैं / किन्तु इसकी प्राप्ति तिर्यञ्च पर्यायमें न होकर मात्र मनुष्य पर्यायमें होती है। इसके लिए उसे कर्मभूमिज ही होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इसे कर्मभूमिज और अकर्मभूभिज दोनों प्राप्त कर सकते हैं / इतना अवश्य है कि जो कर्मभूमिज मनुष्य संयमभावको प्राप्त करते हैं उनके यथासम्भव जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीनों प्रकारका संयमभाव होता है। किन्तु अकर्मभूमिजके वह मध्यम ही होता है। साधारण नियम यह है कि जो मनुष्य आगामी भवसम्बन्धी नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका बन्ध कर लेता है उसके संयमासंयमभाव और संयमभाव नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य यदि बाहरसे गृहस्थधर्म और मुनिधर्मका पालन करता है तो भले ही करे। किन्तु अन्तरङ्गमें उसके गृहस्थधर्म और मुनिधर्मके भाव नहीं होते / मात्र आगामी भवसम्बन्धी देवायुका बन्ध करनेवालेके लिए