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________________ वर्ण, जाति और धर्म सम्माइट्ठी जीवो सहहदि पवयणं णियमसा दु उवइडं / ... सद्दहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा // 107 // कपा० सुत्तादो तं सम्मं दरिसिजंतो जदा ण सहहदि / सो चेव हवा मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुडि // 28 // गो० जी० अर्थात् आगममें आप्त, आगम और पदार्थके विषयमें जो उपदेश दिया गया है, सम्यग्दृष्टि जीव उसका उसी रूपमें श्रद्धान करता है। किन्तु गुरुके निमित्तसे उसे आप्त, आगम और पदार्थ के विषयमें यदि अन्यथा ज्ञान मिलता है तो स्वयं जानकार न होनेसे गुरुको श्रद्धावश वह असद्भावका भी श्रद्धान करता है। तात्पर्य यह है ,कि इस प्रकार विपरीत श्रद्धा होने पर भी उसके सम्यग्दर्शनमें हानि नहीं आती // 27 // किन्तु उसका यह सम्यग्दर्शन तभी तक समीचीन माना जा सकता है जब तक उसे सूत्रसे समीचीन अर्थका बोध नहीं होता। सूत्रसे समीचीन अर्थका बोध कराने पर यदि वह अपनी विपरीत श्रद्धाको छोड़कर सूत्रके अनुसार अर्थकी श्रद्धा नहीं करता है. तो वह जीव उस समयसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है। साधारणतः यह कहा जाता है कि अपने पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य या पण्डितने जो कुछ भी लिखा है उसे प्रमाण मानकर चलना चाहिए / किसी हद तक यह उचित भी है। किन्तु इसमें एक ही आपत्ति है / वह यह कि सब आचार्य न तो गणधर होते हैं, न प्रत्येकबुद्ध होते हैं, न श्रुतकेवली होते हैं और न अभिन्नदशपूर्वी होते हैं, इसलिए कदाचित् अपनी अल्पज्ञता और देश, काल परिस्थितिके कारण वे अन्यथा प्रतिपादन कर सकते हैं। सम्यग्दृष्टिको इसका बोध होने पर सूत्रानुसारी होनेसे वह ऐसे वचनको आगमबाह्य मान कर त्याग देता है और पूर्व पूर्व प्रमाणताके आधारसे वह तत्त्वका निर्णय करता है, अन्यथा गुरुके व्यामोह वश वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। पूर्वोक्त दो गाथाओंमें इसी भावको व्यक्त किया गया है। तात्पर्य यह है कि जैनसाहित्यमें भिन्न भिन्न कालमें
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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