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________________ __नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 65 जैनधर्मके अधिकारी मनुष्यमात्र होते हैं। अर्थात् कर्मभूमिमें आर्य और म्लेच्छ तथा इनकी जाति और उपजातिके भेदसे जितने प्रकारके मनुष्य माने गये हैं वे सब समग्ररूपसे जैनधर्मको धारण करनेके पात्र हैं। वहाँ पर इस तथ्यको फलित करनेके लिए जो युक्तियाँ दी गई हैं वे सब आगम साहित्यके मन्तव्योंको ध्यानमें रखकर ही दी गई हैं। फिर भी इस विषयके विवादग्रस्त बन जानेके कारण इसके विधि-निषेधपरक पूरे जैनसाहित्यके आलोढनकी महती आवश्यकता है। यहाँ हमें कई दृष्टियोंसे विचार करना है। सर्वप्रथम तो यह देखना है कि षटखण्डागम आदि मूल आगम साहित्यमें अध्यात्मदृष्टि से इसका किस रूपमें प्रतिपादन हुआ है / वहाँ हमें इस बातका भी विचार करना है कि मूल आगम साहित्यके बाद उत्तरकाल में जो साहित्य लिखा गया है उसमें मूल आगम साहित्यका ही अनुसरण हुआ है या उसमें कहीं कुछ फरक भी आया है / इसके बाद मनुष्य जगतमें मुख्यरूपसे भारतवर्ष में प्रचलित वर्ण, जाति, कुल और गोत्र आदिकी दृष्टि से भी इस विषयको स्पर्शकर विचार करना है। ऐसा करते हुए जहाँ विचार क्षेत्रमें. व्यापकता आती है वहाँ हमारी जबाबदारी भी बढ़ जाती है। मनुष्यजातिका कोई एक समुदाय यदि वास्तवमें जैनधर्मको आंशिकरूपसे या समग्ररूपसे धारण करनेकी योग्यता नहीं रखता तो हमारा यह आग्रह नहीं है कि उसमें बलात् इस प्रकारकी योग्यता मानी ही जाय / साथमें हम यह भी नहीं चाहते कि किन्हीं बाहरी कारणोंसे कोई एक समुदाय यदि किसी समय धर्म के अयोग्य घोषित किया गया है तो तीर्थङ्करोंकी वाणी कहकर समाजके भयवश या अन्य किसी काल्पनिक भयवश उसे वैसे ही चलने दिया जाय / जहाँ तक हमने जैनधर्मका अध्ययन, मनन और निदिध्यासन किया है उससे हमारी यही धारणा पुष्ट होती है कि हमें सर्वत्र वस्तुमर्यादाको हृदयंगम करते समय विवेकसे काम लेना चाहिए। तीर्थङ्करोंकी वाणीका स्वरूप ही वस्तुमर्यादाकी अभिव्यक्तिमात्र है। उसमें सम्यग्दृष्टिकी श्रद्धा ( सम्यग्दर्शन) को विवेकमूलक सूत्रानुसारी बनाने के लिए यह स्पष्टरूपसे घोषित किया गया है
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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