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________________ समाजधर्म कर सकता है। पर इसप्रकार जो विवाह होता है उसे धर्मविवाह नहीं - कह सकते। यह तो महापुराणसे ही प्रकट है कि जब भरत महाराजने सम्यग्दृष्टि श्रावकोंको उक्त उपदेश दिया था तब तक भगवान् ऋषभदेवको मोक्षमार्गका प्रचार करते हुए साठ हजार वर्ष हो गये थे। किन्तु उन्होंने उस समय तक और उसके बाद भी अपनी दिव्यध्वनि द्वारा न तो यह ही उपदेश दिया कि तीन वर्णके मनुष्य द्विज कहलाते हैं। यज्ञोपवीत धारण करने और संस्कारपूर्वक श्रावक व मुनिदीक्षा लेनेका अधिकार मात्र उन्होंको है और न यह ही उपदेश दिया कि ब्राह्मण आदि प्रत्येक जातिवाले मनुष्यको अपनी-अपनी जातिमें ही विवाह करना चाहिए। अपनी जातिसे नीची जातिकी कन्या स्वीकार करने पर उसकी कामविवाह संज्ञा होती है / यद्यपि भगवान् ऋषभदेवने राज्यपदका भोग करते हुए क्षत्रिय आदि तीन वर्षों की रचना की थी यह पद्मपुराण और महापुराणके आधारसे माना जा सकता है / परन्तु उन्होंने इन वर्गों की स्थापना कर्मके आधारसे ही की थी यह भी उन पुराणोंसे ज्ञात होता है। - हमारे सामने महापुराणके सिवा इसका पूर्ववर्ती जो अन्य पुराणसाहित्य उपस्थित है उससे भी यही जान पड़ता है कि क्रियामन्त्रगर्भ धर्मका जितना उपदेश महापुराणमें भरत महाराजके मुखसे दिलाया गया है वह सब एकमात्र महापुराणमें ही उपलब्ध होता है, महापुराणके सिवा अन्य सब " पुराणोंमें न तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको कहीं द्विज कहा गया है, न ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यवर्णके मनुष्य यज्ञोपवीत चिह्नसे अंकित किये जायें यह कहा गया है, न केवल तीन वर्णके मनुष्योंको दीक्षाके योग्य बतलाया गया है और न ही प्रत्येक वर्णके मनुष्यको अपने वर्णकी कन्याके साथ ही विवाह करना चाहिए यह कहा गया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि महा 1. महापुराणपर्व 40 श्लोक १६६से 172 तक /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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