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________________ . 62 वर्ण, जाति और धर्म है।' इसका उन्हें उत्तम प्रकारसे पालन करना चाहिए। जो द्विज इस विशुद्ध वृत्तिका सम्यक् प्रकारसे पालन नहीं करता वह मूर्ख नाममात्रका द्विज है। तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण हैं। जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है। इनकी आजीविका उत्तम होनेसे यह उत्तमजाति मानी गई है। तथा दान,पूजा श्रादि कार्य मुख्य होने के कारण व्रतोंकी शुद्धि होनेसे यह उत्तम जाति और भी सुसंस्कृत बनी रहती है। द्विज जातिका संस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे होता है। किन्तु जो तपश्चरण और शास्त्राभ्यास नहीं करता वह जातिमात्रसे द्विज है / जो एक बार गर्भसे और दूसरी बार क्रियासे इसप्रकार दो बार उत्पन्न हुआ है उसे द्विजन्मा अथवा द्विज कहते हैं / परन्तु जो क्रिया और मन्त्र दोनोंसे ही रहित है वह केवल नामको धारण करनेवाला द्विज है। कुल क्रियाएं गर्भान्वय, दीक्षान्वय. और कन्वयके भेदसे तीन प्रकारकी हैं। इनमेंसे गर्भान्वय क्रियाओंके 53, दीक्षान्वयके 48 और कन्वय क्रियाओंके 8 भेद हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको इनका पालन अवश्य करना चाहिए / इन क्रियाओंका विवेचन करते हुए वहाँ भरतमहाराजके मुखसे यह भी कहलाया गया है कि उपनीतिसंस्कार केवल द्विजोंका करना चाहिए। विद्या और शिल्पसे आजीविका करनेवाले मनुष्य दीक्षाके योग्य नहीं हैं / शूद्र अधिकसे अधिक मरणपर्यन्त एक शाटक व्रत धारण कर सकते हैं / इज्या आदि छह आर्य कर्मों के अधिकारी भी द्विज ही हो सकते हैं / द्विजों और शूद्रोंको विवाह आदि कर्म भी अपनी जातियोंमें ही करने चाहिए। इसप्रकार द्विज जो विवाह करते हैं वह उनका धर्मविवाह कहलाता है / उच्चजातिका मनुष्य नीच जातिकी कन्यासे विवाह 1. महापुराण पर्व 38 श्लोक 4 से 25 तक / 2. महापुराण पर्व 38 श्लोक 42 से 44 तक / 3. महापुराणपर्व 38 श्लोक 47-48 / 4. महापुराणपर्व 38 श्लोक 51 से 53 तक।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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