________________ भाहारग्रहणमीमांसा 433 शिल्पी, कारु, भाट, कुटनी, और पतित आदि तथा पाखण्डी और साधुवेषसे आजीविका करनेवालेके यहाँ मुनि देहस्थिति न करे अर्थात् श्राहार न ले। --यशस्तिलकचम्पू अन्याह्मणक्षत्रियवैश्यसच्दैः स्वदातृगृहाद् वामतस्त्रिषु गृहेषु दक्षिणतश्च त्रिषु वर्तमानैः षड्भिः स्वप्रतिग्राहिणा च सप्तमेन'..... दान देनेका अधिकारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सच्छ्रन्द है / दाताके घरके साथ बाई ओरके तीन घर और दाई श्रोरके तीन घर इस प्रकार कुल सात घरके दिये गये आहारको साधु स्वीकार करता है। -अनगारधर्मामृत अ० 4 श्लो० 167 दातुः पुण्यं श्वादिदानादस्त्येवेत्यनुवृत्तिवाक् / वनीपकोक्तिदाजीवो वृत्तिः शिल्पकुलादिना // 5-22 // कुत्ता आदिको आहार आदि करानेसे दाताको पुण्य लाभ होता है इस प्रकार दाताके अनुकूल वचन बोलना वनीपक नामका दोष है / तथा शिल्प और कुल आदिका विज्ञापन कर आजीविका करना श्राजीव नामका दोष है // 5-22 // भाजीवास्तप ऐश्वयं शिल्पं जातिस्तथा कुलम् / - तैस्तूत्पादनमाजीव एष दोषः प्रकथ्यते // तप, ऐश्वर्य, शिल्प, जाति और कुल इनका प्रख्यापन कर आजीविका उत्पन्न करना श्राजीव नामका दोष कहा जाता है। - उद्धत 5-22 मलिनीगर्भिणीलिङ्गिन्यादिनार्या नरेण च / शवादिनापि क्लीबेन दत्तं दायकदोषभाक् // 5-34 // जो मलिन है, जो गर्भ धारण किये है तथा आर्यिका आदि लिङ्गको धारण किये है इस प्रकारकी नारी या पुरुषके द्वारा, तथा शवको स्मशान