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________________ 432 वर्ण, जाति और धर्म ......."तथान्ये च बहवश्चण्डालादिस्पर्शकलहेष्टमरणसांधर्मिकसन्यासपतनप्रधानमरणादयोऽशनपरित्यागहेतवः // 8 // चाण्डाल आदिका स्पर्श होना, झगड़ा-फिसाद होना, इष्ट व्यक्तिका मरण होना, साधर्मो बन्धुका सन्यास पूर्वक मरण होना और राजा आदि प्रधान व्यक्तिका मरण होना इत्यादिक और भी बहुतसे भोजनके त्यागके हेतु हैं // 81 // -मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार टीका ........."नीचोच्चमध्यमकुलेषु दरिद्रेश्वरसमानगृहिषु गृहपंक्स्या हिंडंति पर्यटन्ति मौनेन मुनयः समाददते भिन्नां गृह्णन्ति // 47 // नीच, उच्च और मध्यम कुलोंमें अर्थात् दरिद्र व्यक्तियोंके घरमें, ऐश्वर्य-सम्पन्न व्यक्तियोंके घरमें और साधारण स्थितिवाले व्यक्तियोंके घरमें गृहपंक्तिके अनुसार चारिका करते मुनि हुए मौनपूर्वक भिक्षाको ग्रहण करते हैं // 47 // -मूलाचार अनगारभावना अधिकार टीका उच्छिष्टं नीचलोकार्हमन्योद्दिष्टं विगर्हितम् / न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् // . अभक्तानां कदर्याणामवतानां च सद्यसु / न भुञ्जीत तथा साधुदैन्यकारुण्यकारिणाम् // . शिल्पिकारुकवाक्पण्यसम्भलीपतितादिषु / देहस्थितिं न कुर्वीत लिङ्गिलिङ्गोपजीविषु // जो उच्छिष्ट हो, नीच लोगोंके योग्य हो दूसरेके उद्देश्यसे बनाया गया हो, ग्लानिकर हो, दुर्जनोंके द्वारा छा गया हो तधा देव और यक्षादिके निमित्तसे बनाया गया हो ऐसे भोजनका आहार साधुको नहीं देना चाहिए / ___ जो भक्त न हों, कदर्य हों, अव्रती हों, दीन हों और करुणाके पात्र हों उनके घर साधु थाहार न ले।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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