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________________ 412 वर्ण, जाति और धर्म प्राप्त होते हैं तथा सब दुखोंका अन्त कर अनन्त सुखका अनुभव करते हैं // 243 // -जीवस्थान चूलिका आपिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं / आसिज्ज गाणदंसणचरित्ततवर्वारियायारं // 1 // बन्धुवर्गसे पूछकर तथा माता, पिता, स्त्री और पुत्र इनका त्याग कर यह प्राणी ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारको स्वीकार कर संसारसे विरक्त होता है // 1 // -प्रवचनसार चारित्राधिकार जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं / णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं // 4 // जो जानता है वह ज्ञान और जो देखता है वह दर्शन कहा गया है। तथा ज्ञान और दर्शनके प्राप्त होने पर चारित्र होता है // 4 // दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं / सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु गिरायारं // 20 // संयमचरण दो प्रकारका है-सागार और अनगार / जो परिग्रहसे युक्त है उसके सागार संयमचरण होता है और जो परिग्रह रहित है उसके अनगार संयमचरण होता है // 20 // -चरित्रप्राभूत पंचमहन्वयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ / णिग्गथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिजो य // 20 // जो पाँच महाव्रतों और तीन गुप्तियोंसे युक्त है वह संयत है / वह निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है और वन्दनीय है // 20 // दुइयं च वृत्त लिंग उक्किटुं अवर सावयाणं च / भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभावेण मोणेण // 21 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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