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________________ चरित्रग्रहणमीमांसा 411 सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर सतार-सहस्रार कल्प तकके देवोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके विमानवासी देव वहाँ से च्युत होकर कितनी गतियोंको प्राप्त होते हैं // 235 // एक मात्र मनुष्यगतिको प्राप्त होते हैं // 236 // मनुष्योंमें उत्पन्न हो कर कितने ही मनुष्य सबको उत्पन्न करते हैं // 237 // अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके विमानवासी देव वहाँ से च्युत हो कर कितनी गतियोंको प्राप्त होते हैं // 238 // एक मात्र मनुष्यगतिको प्राप्त होते हैं // 236 // मनुष्योंमें उत्पन्न होकर उनके आभिनिबोधिकज्ञान और श्रतज्ञान नियमसे होता है। अवधिज्ञान स्यात् होता है और स्यात् नहीं होता। कितने ही मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न करते हैं और कितने ही केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं / इनके सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होता। सम्यक्त्व नियमसे होता है। कितने ही संयमासंयमको उम्पन्न करते हैं, संयमको नियमसे उत्पन्न करते हैं। कितने ही बलदेव होते हैं। वासुदेव कोई नहीं होता। कितने ही चक्रवर्ती होते हैं, कितने ही तीर्थङ्कर होते हैं तथा कितने ही अन्तकृत हो कर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको प्राप्त होते हैं तथा सब दुखोंका अन्त कर अनन्त सुखका अनुभव करते हैं // 240 // सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव वहाँ से व्युत होकर कितनी गतियोंको प्राप्त होते हैं // 241 // एक मात्र मनुष्यगतिको प्राप्त होते हैं // 242 // मनुष्योंमें उत्पन्न हुए उनके आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान नियमसे होता है। कितने ही मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न करते हैं। केवलज्ञानको नियमसे उत्पन्न करते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व नहीं होता। सम्यक्त्व नियमसे होता है। कितने ही संयमासंयमको उत्पन्न करते हैं। संयमको नियमसे उत्पन्न करते हैं। कितने ही बलदेव होते हैं। वासुदेव नहीं होते / कितने हो चक्रवर्ती होते हैं और कितने ही तीर्थङ्कर होते हैं। वे सब नियमसे अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाणको
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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