________________ 398 वर्ण, जाति और धर्म त इमे कालपर्यन्ते विक्रियां प्राप्य दुर्दशः / धर्मद्रुहो भविष्यन्ति पापोपहतचेतनाः // 41-50 // . सत्त्वोपघातनिरता मधुमांसाशनप्रियाः / / प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधार्मिकाः // 41-51 // अहिंसालक्षणं धर्म दूषयित्वा दुराशयाः / चोदनालक्षणं धर्म पोषयिष्यन्त्यमी वत // 41-52 // पापसूत्रधरा धूर्ताः प्राणिमारणतत्पराः / वस्य॑द्युगे प्रवस्य॑न्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः // 41-53 // द्विजातिसर्वजनं तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत् / स्याहोषबीजमायत्यां कुपाखण्डप्रवर्तनात् // 41-54 // इति कालान्तरे दोषबीजमन्येदासा। नाधुना परिहर्तव्यं धर्मसृष्ट्यनतिक्रमात् / / 41-55 / / एथानमुपयुक्तं सत् क्वचित्कस्यापि दोषकृत् / तथाप्यपरिहार्य तद् बुधैर्बहुगुणास्थया // 4-56 // तथेदमपि मन्तव्यमद्यस्वे गुणवत्तया। पुंसामाशयवैषम्यात् पश्चाद् यद्यपि दोषकृत् / / 41-57 // इस प्रकार प्रश्न करनेपर भगवान् ऋषभदेवने उत्तर दिया कि हे वत्स ! धर्मात्मा द्विजोंकी पूजा कर बहुत ही उत्तम कार्य किया है / किन्तु उसमें कुछ दोष है उसे तू सुन // 41-45 // हे आयुष्मन् ! तूने जो इन गृहस्थोंकी रचना की है सो ये कृतयुगके अन्त तक ही उचित आचारका पालन करेंगे // 41-46 // उसके बाद कलियुगके निकट आनेपर ये जातिवादके अभिमानवश भ्रष्ट आचारको धारण कर सन्मार्गके विरोधी बन जावेंगे // 41-47 // इस समय ये लोग हम सबमें श्रेष्ठ हैं इस प्रकार जातिमदके वशीभूत होकर धनकी इच्छासे दूसरोंको मिथ्या आगमोंसे मोहित करने लगेंगे // 41-48 // सत्कार लाभसे गर्विष्ठ और मिथ्यामदसे