________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा एकाकादशान्तानि दत्तान्येभ्यो मया विभो। व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः // 41-31 // विश्वस्य धर्मसर्गस्य त्वयि साक्षात्प्रणेतरि / स्थिते मयातिबालिश्यादिदमाचरितं विभो // 41-32 // दोषः कोऽत्र गुणः कोऽत्र किमेतत् साम्प्रतं न वा। दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ // 41-33 // हे भगवन् ! मैंने आपके द्वारा कहे हुए उपासकाध्याय सूत्रके मार्गपर चलनेवाले तथा श्रावकाचारमें निपुण द्विज निर्माण किए हैं // 41-30 // हे विभो ! उन्हें ग्यारह प्रतिमाओंके विभागक्रमसे व्रतोंके चिह्नस्वरूप एक सूत्र, दो सूत्र इत्यादि रूप ग्यारह सूत्र दिए हैं // 41-31 / / हे विभो समस्त धर्मसृष्टिको साक्षात् उत्पन्न करनेवाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने अपनी मूर्खतावश यह आचरण किया है // 41-32 / / इसमें दोष क्या है और गुण क्या है तथा यह कार्य उचित हुआ या नहीं इस प्रकार दोलायमान मेरे चित्तको किसी निश्चयमें स्थिर कीजिए // 41-33 / / साधु वत्सं कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनम् / किन्तु दोषानुसङ्गोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यताम् // 41-45 // आयुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः / ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थितिः // 41-46 // ततः कलियुगेभ्यणे जातिवादावलेपतः / भ्रष्टाचाराः प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् // 41-47 // तेऽमी जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति / पुरा दुरागमेर्लोकं मोहयन्ति धनाशयाः // 41-48 // सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धताः। जनान् प्रतारयिष्यन्ति स्वयमुत्पाद्य दुःश्रुतीः // 41-46 //