________________ 388 वर्ण, जाति और धर्म अलक्षयत्सरत्नेन सुत्रचिढ्न चारुणा / चामीकरमयेनासौ प्रवेशयदथो गृहम् // 4-10 // मिथ्यादृशोऽपि तृष्णा श्चिन्तया व्याकुलीकृताः / जल्पन्तो दीनवाक्यानि प्रविष्टाः दुःखसागरम् // 4-11 // इस वृत्तको सुनकर स्त्रीपुत्रसहित परम विनयी सम्यग्दृष्टि पुरुष बड़े प्रसन्न हुए // 107 // वे तो राजमन्दिर गये ही। उनके साथ धनकी तृष्णावश मायावी मिथ्यादृष्टि भी गये / / 10 / / किन्तु राजाने आँगनमें बोए गये जौ, धान्य, मूग और उड़द आदिके उगे हुए सचित्त अंकुरों द्वारा सब सम्यग्दृष्टियोंको पहिचानकर उन्हें ही सुन्दर स्वर्णसूत्रसे विभूषितकर महलमें प्रवेश कराया // 106, 110 // इससे अत्यन्त लोभी .मिथ्यादृष्टि मनुष्य आकुलतासे पीड़ित चित्त और खेदखिन्न हो दीन वचन बोलने लगे // 11 // ततो यथेप्सितं दानं श्रावकेभ्यो ददौ नृपः / पूजितानां च चिन्तेयं तेषां जाता दुरात्मनाम् // 4-112 // वयं केऽपि महापूता जगते हितकारिणः / पूजिता यत्र नरेन्द्रेण श्रद्धयात्यन्ततुङ्गया // 4-113 // ततस्ते तेन गण समस्ते धरणीतले / प्रवृत्तायाचितुं लोकं दृष्ट्वा द्रव्य समन्वितम् // 4-114 // ततो मतिसमुद्रेण भरताय निवेदतम् / यथायेति मया जैने वचनं सदसि श्रुतम् // 4-115 // वर्द्धमानजिनस्यान्ते भविष्यन्ति कलौ युगे। एते ये भवता सृष्टाः पाखण्डिनो महोद्धताः // 4-116 // प्राणिनो मारयिष्यन्ति धर्मबुद्धया विमोहिताः / महाकषायसंयुक्ताः सदापापक्रियोद्यताः // 4-117 // कुप्रन्थं वेदसंज्ञं च हिंसाभाषणतत्परम् / .. वच्यन्ति कर्तृनिर्मुक्तं मोहयन्तोऽखिलाः प्रजाः // 4-118 //