________________ 387 ब्राह्मणवर्णमीमांसा और इन्हें भक्तिपूर्वक यथेच्छ दान भी दूंगा, क्योंकि इन्होंने मुनिधर्मसे छोटे धर्मको स्वीकार किया है // 102 // तदनुसार इसने अपने अत्यन्त क्रियाशील पुरुषों के द्वारा सब प्रदेशोंके सम्यदृष्टियोंको आमन्त्रित करनेका आदेश दिया है // 103 // महान् कलकलो जातः सर्वस्यामवनौ ततः / भो भो नरा महादानं भरतः कर्तुमुद्यतः // 4-104 // उत्तिष्ठाशु गच्छामो वस्त्ररत्नादिकं धनम् / भानयामो नरा ह्येते प्रेषितास्तेन सादराः // 4-105 // उक्तमन्यरिदं तत्र पूजयत्येष सम्मतान् / सम्यग्दृष्टिजनान् राजा गमनं तत्र नो वृथा // 4-106 // भरत महाराजका इस प्रकार निमन्त्रण मिलनेपर समस्त भूमण्डलमें महान् कलकल शब्द होने लगा। जनता एक दूसरेसे कहने लगी अहो भरत महाराज महादान करनेके लिए उद्यत हुए हैं // 104 / / उठो, शीघ्रता करो, चलकर दानमें मिली हुई वस्त्र रत्नादिक सम्पदा ले आवें। देखो न उन्होंने अपने आदमियोंको आदरपूर्वक आमन्त्रित करनेके लिए भेजा है / / 105|| कुछ भनुष्य यह भी कहने लगे कि राजा अपने मन्दिरमें आये हुए माननीय सम्यग्दृष्टियोंका ही आदर-सत्कार करता है, इसलिए वहाँ अपना जाना व्यर्थ है / / 106 // ततः सम्यग्दृशो याता हर्ष परममागताः / समं पुत्रैः कलत्रैश्च पुरुषा विनयस्थिताः // 4-107 // मिथ्यादृशोऽपि सम्प्राप्ता मायया वसुतृष्णया / भवनं राजराजस्य शक्रप्रासादसन्निभम् // 4-108 अङ्गणोप्तयवव्रीहिमुद्गमाषाङ्कुरादिभिः। . उच्चित्यलक्षणैः सर्वान् सम्यग्दर्शनसंस्कृतान् // 4-106 //