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________________ 372 वर्ण, जाति और धर्म ७.अनन्तर राज्यके अधिपति हो विश्वसृष्टा भगवान् ऋषभदेवने अपने पिता नाभिराजके समीप ही प्रजा पालनकी ओर ध्यान दिया // 16-241 // उन्होंने सर्व प्रथम प्रजाका निर्माण कर उसकी आजीविकाके नियम बनाये तथा वह अपने-अपने धर्मका उल्लंघन न कर सके इस प्रकारके नियन्त्रण की व्यवस्था कर शासन करने लगे // 16-242 // विभुने अपनी दोनों भुजाओंसे शस्त्र धारण कर क्षत्रियोंकी रचना की। तात्पर्य यह है कि उन्होंने शस्त्रपाणि क्षत्रियोंको आपत्तिसे रक्षा करनेरूप कर्ममें नियुक्त किया // 16-243 // अनन्तर अपने दोनों ऊरुओंसे यात्रा दिखला कर वैश्योंकी रचना की, क्योंकि जलयात्रा और स्थलयात्रा श्रादिसे आजीविका करना वैश्योंका मुख्य कर्म है // 16-244 // निम्न श्रेणिकी आजीविका करनेवाले शूद्रोंकी रचना बुद्धिमान् ऋषभदेवने अपने दोनों पैरोंसे की, क्योंकि उत्तम वर्णवालोंकी शुश्रूषा आदिके भेदसे उनकी आजीविका अनेक प्रकारकी मानी गई है // 16-245 // इस प्रकार तीन वर्णोंकी रचना भगवान ऋषभदेवने की / तथा मुखसे शास्त्रोंको पढ़ाते हुए भरतचक्रवर्ती आगे ब्राह्मणोंकी रचना करेंगे, क्योंकि अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और पूजा करना कराना ये ब्राह्मणों के कर्म हैं // 16-246 // उन्होंने यह भी बताया कि शूद्र शूद्रके साथ विवाह करे / वैश्य वैश्या और शूद्राके साथ विवाह कर सकता है। क्षत्रिय उक्त दो और क्षत्रिय कन्याके साथ विवाह कर सकता है तथा ब्राह्मण मुख्य रूपसे ब्राह्मण और कदाचित् अन्य वर्णोंकी कन्याओंके साथ विवाह कर सकता है। 16-247 // स्वामिमां बृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् / स पार्थिवैनियन्तव्यो वर्णसङ्कीणिरन्यथा // 16-248 // कृष्यादिकर्मषटकं च स्रष्टा प्रागेव सृष्टवान् / कर्मभूमिरियं तस्मात् तदासीत्तद्व्यवस्थया // 16-146 // जो अपनी इस वृत्तिका त्याग कर अन्य वृत्तिको स्वीकार करता है उस पर राजाओंको नियन्त्रण स्थापित करना चाहिए, अन्यथा वर्णसंकर हो
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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