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________________ वर्ण, जाति और धर्म क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाभवन् / वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविताः // 16-184 // तेषां शुश्रूषणाच्छू दास्ते द्विधा कार्यकारवः / कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः // 16-185 // कारवोऽपि मता द्वघा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः / / तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्यु कर्त्तकादयः॥१६-१८६॥ यथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसङ्करम् / विवाहजातिसम्बन्धव्यवहारश्च तन्मतम् // 16-187 // यावती जगती वृत्तिः अपापोपहता च या। सा सर्वास्थ मतेनासीत् स हि धाता सनातनः // 16-188 // युगादिब्रह्मा तेन यदित्थं स कृतो युगः। ततः कृतयुगं नाम्ना तं पुराणविदो विदुः // 16-186 // असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म प्रजाकी आजीविकाके कारण हैं // 16-176 // भगवान् ऋषभदेवने अपनी मतिकी कुशलतासे इन्हीं छह कर्मों द्वारा अपनी आजीविका करनेका उपदेश दिया सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरुं भगवान् सरागी थे, वीतराग नहीं थे। भावार्थ-सांसारिक कार्योंका उपदेश सराग अवस्थामें ही दिया जा सकता है // 16-180 // शस्त्र लेकर सेवा करना असिकर्म है, लिखकर सेवा करना मषिकर्म है, खेती-बाड़ी करना कृषिकर्म है, शास्त्रसे आजीविका करना विद्याकर्म है, व्यापार करना वाणिज्यकर्म है और हाथोंकी कुशलतास श्राजीयिका करना शिल्पकर्म है। वह शिल्पकर्म चित्रकला और पत्रच्छेद आदिके भेदसे अनेक प्रकारका माना गया है // 16-181,182 // उसी समय आदि ब्रह्मा भगवान्ने तीन वर्ण उत्पन्न किए / आपत्तिसे रक्षा करना आदि गुणों के कारण वे क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाये // 16-183 // जो शस्त्रसे आजीविका करने लगे वे क्षत्रिय हुए, जो कृषि, व्यापार और पशुपालनसे आजीविका करने लगे वे वैश्य हुए और जो उनकी शुश्रषा
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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