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________________ जातिमीमांसा वर्गों में ब्राह्मण गुरु है इसलिए वही परम पदके योग्य है ऐसा जो लोग कहते हैं वे भी मुक्तिके योग्य नहीं है उनको ध्यानमें रखकर पूज्यपाद आचार्यने 'जातिदेहश्रिता दृष्टा' इत्यादि श्लोक कहा है। इस श्लोकमें जातिसे ब्राह्मण आदि जाति ली गई है। वह देहके आश्रयसे होती है इत्यादि श्लोकका अर्थ सुगम है / / 88 // ब्राह्मण आदि जातिसे विशिष्ट मनुष्य निर्वाण आदिकी दीक्षासे दीक्षित होकर मुक्तिको प्राप्त करता है ऐसा कहनेवालेको उद्देश्यकर आचार्य पूज्यपादने 'जातिलिङ्गविकल्पेन' इत्यादि श्लोक कहा है। जिन शैवमत आदिके माननेवालोंको ऐसा आगमका आग्रह है कि जाति और लिङ्गका भेद अर्थात् उत्तम जातिविशिष्ट लिङ्ग मुक्तिका हेतु है ऐसा आगममें कहा है, अतः उतने मात्रसे मुक्ति होगी इस प्रकारका जिन्हें आगमाभिनिवेश है वे भी आत्माके परम पदको नहीं प्राप्त होते // 86 // -समाधितन्त्र संस्कृत टीका भतीचारव्रतायेषु प्रायश्चितं गुरूदितम् / आचरेज्जातिलोपञ्च न कुर्यादतियत्नतः // 63 // सर्व एव विधि नः प्रमाणं लौकिकः सताम् / यत्र न व्रतहानिः स्यात् सम्यक्त्वस्य च खण्डनम् // 64 // . व्रत आदिमें अतीचार लगनेपर गुरुके द्वारा बतलाये गये प्रायश्चित्तसे उन्हें शुद्ध कर लेना चाहिए। तथा जातिलोप न हो इसमें प्रयत्नशील रहना चाहिए // 63 // सजनोंको सभी लौकिक विधि जैनविधि रूपसे प्रमाण है। मात्र वह ऐसी होनी चाहिए. जिसमें व्रतोंकी हानि न हो और सम्यक्त्वका नाश न हो // 64 // रत्नमाला
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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