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________________ .. क्षेत्रकी दृष्टि से दो प्रकारके मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 323 लोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लंघनकर म्लेच्छभूमिके मिथ्यादृष्टि मनुष्यके सकलसंयमके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें विद्यमान जघन्य संयमलब्धिस्थान होता है। उससे आगे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्यान जाकर म्लेच्छभूमिके देशसंयत मनुप्यके सकलसंयमके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट संयमलब्धिस्थान होता है। उससे आगे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान जाकर आर्यखण्डके देशसंयतमनुष्यके संयम ग्रहण करनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट सकलसंयमलब्धिस्थान होता है। ये संयम ग्रहण करनेके प्रथम समयमें होनेवाले आर्य और भ्लेच्छ मनुष्यसम्बन्धी प्रतिपद्यमान संयमलब्धिस्थान कहलाते हैं। यहाँ आर्य और म्लेच्छ मनुष्यके मध्यके जो संयमस्थान होते हैं वे मिथ्यादृष्टि जीवके, असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके या देशसंयत जीवके तदनुरूप विशुद्धिके द्वारा * सकलसंयमको प्राप्त होते समय होते हैं, क्योंकि विधि और निषेधरूप नियमका कुछ उल्लेख नहीं होनेसे दोनोंके इन स्थानोंकी सम्भावनाका शन होता है यह न्यायसिद्ध बात है। यहाँपर आर्य और म्लेच्छ दोनोंके प्राप्त होनेवाले दोनों जघन्य स्थान यथायोग्य तोत्र संक्लेशयुक्त संयतके होते हैं। परन्तु दोनों उत्कृष्ट स्थान मन्दसंक्लेश से युक्त संयतके होते हैं। शंका-म्लेच्छभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्योंके सकलसंयमका ग्रहण कैसे सम्भव है ? ____ समाधान--ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि दिग्विजयके समय जो म्लेच्छराजा चक्रवर्ती के साथ आर्यखण्डमें आ जाते हैं और जिनका चक्रवर्ती के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है उन्हें संयम के प्राप्त होनेमें कोई विरोध नहीं आता। चक्रवर्ती श्रादिके द्वारा विवाही गई उनकी कन्याओंके गर्भसे उत्पन्न हुआ बालक मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ कहलाता है, अतः ऐसे बालकके संयमकी प्राप्ति सम्भव होनेसे उस उस प्रकारके मनुष्योंको दीक्षा ग्रहण करनेके योग्य होनेका निषेध नहीं // 16 // -लब्धिधार क्षपणासार संस्कृत टीका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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