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________________ 260 वर्ण, जाति और धर्म मृगसेन धीवरका जिनालयमें धर्म स्वीकार अवन्ती नामके महादेशमें शिप्रा नदीके किनारे शिशपा नामका एक ग्राम था। वहाँ मृगसेन नामका एक धीवर रहता था। उसकी स्त्रीका नाम घण्टा था / एक दिन पार्श्वनाथ जिनालयमें संघ सहित जयधन नामके आचार्य आये / मृगसेन धीवरने जिनालयमें जाकर प्राचार्य महाराजके मुखसे उपदेश सुनकर यह व्रत लिया कि पानीमें जाल डालने पर उसमें पहली बार जो मछली फसेगी उसे मैं छोड़ दिया करूँगा। दूसरे दिन धीवरने ऐसा ही किया / किन्तु उस दिन उसके जालमें बार-बार वही मछली फसती रही और पहिचान कर पुनः पुनः वह उसे पानीमें छोड़ता गया / अन्तमें खाली हाथ वह घर लौटा। उसकी स्त्रीको यह ज्ञात होने पर दुर्वचन कह कर उसने मृगसेनको घरसे भगा दिया / वह घरसे निकल कर देवकुलमें जा कर सो गया / किन्तु रात्रिको सोते समय उसे एक साँपने डस लिया जिससे उसका प्राणान्त हो गया। कुछ समय बाद उसकी पत्नी खोजती हुई वहाँ आई . और उसे मरा हुआ देख कर उसने भी साँपके बिल में हाथ डाल दिया / इसका जो फल होना था वही हुआ / अर्थात् उसे भी साँपने डस लिया / इस प्रकार साँपके उसनेसे दोनोंकी मृत्यु हुई और दोनोंको अपने अपने परिणामोंके अनुसार गति मिली। हिंसक मृगध्वजका मुनिधर्म स्वीकार कर मोक्षगमन श्रावस्ती नगरमें आर्यक नामका एक राजा हो गया है। उसके पुत्रका नाम मृगध्वज था। बड़ा होनेपर उसने पूर्वभवके वैरके कारण भैसका एक पैर काट डाला / यह वृत्त सुन कर राजाको बड़ा क्रोध आया। उसने मृगध्वजको मार डालनेकी आज्ञा दी। किन्तु मन्त्रीकी चतुराईसे उसकी प्राणरक्षा हुई / कालान्तरमें मुनि होकर उसने तपस्या की और अन्तमें 1. बृहत्कथाकोश कथा 72 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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