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________________ आवश्यक षट्कर्म मीमांसा 266 किया गया व्यवहारधर्म भी साक्षात् मोक्षका साधन नहीं हो सकता / ऐसी अवस्थामें जो प्राचार कौलिक दृष्टि से किया जाता है वह धर्मका स्थान कैसे ले सकता है ? उसे तो व्यवहारधर्म कहना भी धर्मका परिहास करना है / अतएव निष्कर्षरूपमें यही समझना चाहिए कि धर्ममें वर्णादिकके भेदसे विचार के लिए रञ्चमात्र भी स्थान नहीं है और यही कारण है कि जैनधर्मने व्यक्तिकी योग्यताके आश्रयसे उसका विचार किया है, वर्ण और जातिके आश्रयसे नहीं। जब यह वस्तुस्थिति है ऐसी अवस्था में अन्य वर्णवालोंके समान शूद्र भी जिन मन्दिर में जाकर जिनदेवकी अर्चा वन्दना करें यह मानना आगम सम्मत होनेसे उचित ही है / आवश्यक षट्कर्म मीमांसा महापुराण और अन्य साहित्य__महापुराणमें तीन वर्णके मनुष्य ही यज्ञोपवीत संस्कार पूर्वक द्विज संज्ञाको प्राप्त होते हैं और वे ही इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छह कर्मों के अधिकारी होते हैं यह बतलाया गया है / साथ ही वहाँ पर यह भी बतलाया गया है कि जब वे ब्रह्मचर्याश्रमका त्यागकर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करते हैं तब उन्हींके मधुत्याग, मांसत्याग, पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग और हिंसा आदि पाँच स्थूल पापोंका त्याग ये सार्वकालिक व्रत होते हैं / महापुराणमें यह तो बतलाया है कि शूद्र यदि चाहे तो मरण पर्यन्त एक शाटक व्रतको धारण करे / परन्तु वह तथाकथित एक शाटक व्रतको पालते समय या उस व्रतको लेनेके पूर्व प्रति दिन और क्या क्या कार्य करे यह कुछ भी नहीं बतलाया गया है, इसलिए प्रश्न होता है कि शूद्रका गृहस्थ अवस्था में अन्य क्या कर्तव्य कर्म है ? यह तो स्पष्ट है 'कि मनुस्मृतिकारने यजन, अध्यान और दान देनेका अधिकारी शूद्रको न
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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