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________________ वर्ण, जाति और धर्म अन्यको नहीं। अन्य व्यक्ति यदि भगवद्भक्ति करना ही चाहते हैं तो वे मन्दिरके बाहर रहकर मन्दिरको शिखरोंमें या दरवाजोंके चौखटोंमें स्थापित की गई जिनप्रतिमाओंके दर्शन कर उसकी पूर्ति कर सकते हैं। मन्दिरोंके सामने जो मानस्तम्भ निर्मापित किये गये हैं उनमें स्थापित जिनप्रतिमात्रों के दर्शन करके भी वे अपनी धार्मिक भावनाकी पूर्ति कर सकते हैं / परन्तु मन्दिरोंके भीतर प्रवेश करके उन्हें भगवद्भक्ति करनेका अधिकार कभी भी नहीं दिया जा सकता।' तो उसका यह अभिप्राय मोक्षमार्गकी पुष्टिमें और उसके जीवनके सुधारमें सहायक नहीं हो सकता। भले ही वह लौकिक दृष्टि से धर्मात्मा प्रतीत हो, परन्तु अन्तरङ्ग धर्मकी प्राप्ति इन विकल्पोंके त्यागमें ही होती है यह निशचित है, क्योंकि प्रथम तो यहाँ यह विचारणीय है कि कौलिक दृष्टि से की गई यह क्रिया क्या संसारबन्धनका उच्छेद करनेमें सहायक हो सकती है ? एक तो ऐसी क्रियामें वैसे ही रागभावकी मुख्यता रहती है, क्योंकि उसके विना अन्य पदार्थके आलम्बनसे प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए आगममें इसका मुख्य फल पुण्यबन्ध हो बतलाया है, संसारका उच्छेद नहीं। यदि कहीं पर इसका फल संसारका उच्छेद कहा भी है तो उसे उपचार कथन ही जानना चाहिए / और यह स्पष्ट है कि उपचार कथन मुख्यका स्थान नहीं ले सकता। उपचारका स्पष्टीकरण करते हुए अन्यत्र कहा भी है मुख्याभावे सति प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते / आशय यह है कि मुख्यके अभाव में प्रयोजन विशेषकी सिद्धि के लिए उपचार कथनकी प्रवृत्ति होती है। इसलिए इतना स्पष्ट है कि अन्य पदार्थके आलम्बनसे प्रवृत्तिरूप जो भी क्रिया की जाती है वह उपचारधर्म होनेसे मुख्य धर्मका स्थान नहीं ले सकता। यद्यपि यह हम मानते हैं कि गृहस्थ अवस्थामें ऐसे धर्मकी ही प्रधानता रहती है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि गृहस्थ मुख्य धर्मसे अपनी चित्तवृत्तिको हटाकर इसे ही साक्षात् मोक्षका साधन मानने लगता है। स्पष्ट है कि जब मोक्षके अभिप्रायसे
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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