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________________ 230 वर्ण, जाति और धर्म रत्नत्रयधर्मको धारण कर आत्मकल्याणमें लगते हैं वे परम धामके पात्र होते हैं पर वे यह नहीं जानते थे कि मुनिदीक्षाके अधिकारी मात्र तीन वर्णके मनुष्य हैं, शूद्र वर्णके मनुष्य मुनिदीक्षाके अधिकारी नहीं हैं और न वे उपनयन संस्कारपूर्वक गृहस्थधर्मकी दीक्षाके ही अधिकारी हैं। वे चाहें तो मरण पर्यन्त एक शाटक व्रतको धारण कर सकते हैं / यह एक शाटकव्रत . क्या वस्तु है यह भी वे नहीं जानते थे। यह सब कौन जानते थे ? एकमात्र भरत चक्रवती जानते थे / इसलिए उनके मुखसे उपदेश दिलाते हुए प्राचार्य जिनसेन ऐसे विलक्षण नियम बनाते हैं जिनका सर्वज्ञकी वाणीमें रञ्चमात्र भी दर्शन नहीं होता। वे मुनिदीक्षाका अधिकार मात्र द्विजको दिलाते हुए कहलाते हैं-'जिसने घर छोड़ दिया है, जो सम्यग्दृष्टि है, प्रशान्त है, गृहस्थोंका स्वामी है और दीक्षा लेनेके पूर्व एक वस्त्रवतको स्वीकार कर चुका है वह दीक्षा लेनेके लिए जो भी आचरण करता है उस क्रियासमूहको द्विजकी दीक्षाद्य नामकी क्रिया जाननी चाहिए।' इस विषयका समर्थन करते हुए वे पुनः कहते हैं कि 'जो घर छोड़कर तपोवनमें चला गया है ऐसे द्विजके जो एक वस्त्रका स्वीकार होता है वह पहलेके समान दीक्षाद्य नामकी क्रिया जाननी चाहिए।' उनके कथनानुसार ऐसा द्विज ही जिनदीक्षा लेनेका अधिकारी है। वही मुनि होनेके बाद तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करता है और वही स्वर्गसे आकर चक्रवर्ती के साम्राज्यका उपभोग करता है। श्रावक धर्मकी दीक्षाके विषयमें प्राचार्य जिनसेनने भरत चक्रवर्ती के मुखसे यह कहलाया है कि इस विषयके जानकार विद्वानोंके द्वारा लिखे हुए अष्ट दल कमल अथवा जिनेन्द्रदेवके समवसरण मण्डलकी जब सम्पूर्ण पूजा हो चुके तब आचार्य उस भव्य पुरुषको जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके सम्मुख बैठावें और बार-बार उसके मस्तकको स्पर्श करता हुआ कहे कि यह तेरी श्रावककी दीक्षा है।' इस प्रकार भरत चक्रवर्तीके मुखसे और भी बहुतसे नियमोंका विधान कराकर आचार्य जिन सेनने सामाजिक क्षेत्रकी तो बात छोड़िए धार्मिक क्षेत्रमें भी वही स्थिति .
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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