SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनदीचाधिकार मीमांसा 226 कालका प्रवाह बहुत दूर तक गया है। इस बीच प्रत्येक कुलका विटल जाना सम्भव है, इसलिए न तो हम यह ही कह सकते हैं कि ब्राह्मण सदा ब्राह्मण ही बना रहता है और न यह ही कह सकते हैं कि अब्राह्मण कभी ब्राह्मण नहीं हो जाता है। जन्मके आधारसे छोटी बड़ी जाति मानना योग्य नहीं है। वास्तवमें बड़ी जाति उसकी है जिसमें ताविकरूपमें संयम, नियम, शील, तप, दान और दया ये गुण पाये जाते हैं। ___ अन्तिम निष्कर्ष यह है कि मध्यकालीन जितना भी प्रमुख साहित्य उपलब्ध होता है उसमें जैनेन्द्र व्याकरणके उक्त सूत्रको प्रश्रय न देकर एकमात्र आगमिक परम्पराको ही प्रश्रय दिया गया है / जैनेन्द्र व्याकरणमें इस सूत्रने कहाँसे स्थान प्राप्त कर लिया, हमें तो इसीका आश्चर्य होता है। समयकी बलिहारी है। महापुराण और उसका अनुवर्ती साहित्य अब हम महापुराण पर दृष्टिपात करें / महापुराणके देखनेसे नाटकके समान दो दृश्य हमारे सामने उपस्थित होते हैं-एक केवलज्ञान सम्पन्न भगवान् आदिनाथके मोक्षमार्ग विषयक उपदेशका और दूसरा भरत चक्रवर्तीके द्वारा ब्राह्मण वर्णको स्थापना करानेके वाद उन्हींके द्वारा दिलाये गये उपदेश का / भगवान् श्रादिनाथके द्वारा दिलाये गये मोक्षमार्गोपयोगी उपदेशमें न तो चार वर्गों का नाम आता है और न कौन वर्णवाला कितने धर्मको धारण कर सकता है इस विषयकी मीमांसा की जाती है / वहाँ केवल जीवोंके भव्य और अभव्य ये दो भेद करके बतलाया जाता है कि इनमेंसे अभव्य जीव सम्यग्दर्शन आदि किसी भी प्रकारके धर्मको धारण करनेके अधिकारी नहीं हैं। किन्तु जो भव्य हैं वे काललब्धि आने पर अपनी-अपनी गतिके अनुसार सम्यग्दर्शन आदि धर्मको धारण कर * अन्तमें अनन्त सुखके पात्र बनते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि केवलज्ञानसम्पन्न भगवान् ऋषभदेव यह तो जानते थे कि जो भव्य जीव
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy