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________________ वर्णमीमांसा 187 धर्मका अङ्ग न होकर सामाजिक व्यवस्थाका अङ्ग है। यद्यपि उत्तरकालीन सागारधर्मामृत और लाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंमें कन्याके लक्षण, वरके लक्षण और स्वजातिमें विवाह श्रादि विधि-विधानोंका भी निर्देश किया गया है / तथा त्रिवणांचारमें इस पर एक स्वतन्त्र प्रकरण ही लिखा गया है। परन्तु इतने मात्रसे विवाहको मोक्षमार्गमें प्रयोजक चारित्रका अङ्ग नहीं माना जा सकता है, क्योंकि महापुराणमें जैनधर्मका ब्राह्मणीकरण कर देने के बाद ही चारित्रका प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थोंमें विवाहके सम्बन्धमें इस प्रकारका विधि-विधान किया गया है। इसके पूर्वकालवर्ती प्राचार ग्रन्थोंमें नहीं। ___ इस विषयको और स्पष्टरूपसे समझनेके लिए पूजाका उदाहरण लीजिए। पूजाका दूसरा नाम कृतिकर्म है / इसका करना गृहस्थ और मुनि दोनोंके लिए आवश्यक है / प्रारम्भमें गृहस्थ पूजामें बाह्य जलादि द्रव्यका भी श्राश्रय लेता है। किन्तु जैसे जैसे वह बाह्य परिग्रहका त्याग करता जाता है वैसे वैसे वह बाह्म जलादि द्रव्यका आश्रय छोड़ता जाता है और अन्तमें वह भी मुनिके समान मन, वचन और कायके आश्रयसे पूजा करने लगता है। यह पूजाविधि है जो परम्परया मोक्षमें प्रयोजक होनेसे मोक्षमार्गका अङ्ग मानी जाती है 1 किन्तु इसप्रकार किसी भी शास्त्रकारने विवाहको मोक्षमार्गका अङ्ग नहीं बतलाया है / प्रत्युत यह एक हद तक कामवासना - की तृप्तिका साधन होनेसे संसारका ही प्रयोजक माना गया है / परविवाहकरण अतीचार पर टीका करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजी कहते हैं कि 'जिसने स्वस्त्रीसन्तोष अणुव्रत या परस्त्रीत्याग अणुव्रत लिया है उसने यह प्रतिज्ञा की है कि मैं अपनी स्त्रीके सिवा न तो अन्य स्त्रीके साथ मैथुनकर्म करूँगा और न कराऊँगा / ऐसी अवस्थामें परविवाहकरण और मैथुनकरण इनमें कोई फरक न रहनेसे व्रती श्रावकके लिए वह निषिद्ध ही है / ' पण्डित जीके ये वचन वस्तुस्थितिके सूचक हैं। विवाह होने मात्रसे कोई ब्रह्मचर्याणुव्रती नहीं मान लिया जाता / हिंसा न करने, झूठ न बोलने, चोरी न करने
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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