________________ वर्णमीमांसा जैन आगममें मात्र अलौकिक धर्मका उपदेश है जो इससे सर्वथा भिन्न है / इतने विवेचनसे निष्कर्ष रूपमें जो तथ्य सामने आते हैं उनका विवरण इस प्रकार है 1. तीन वर्षों के कर्मके विषयमें प्रायः सब प्राचार्य एकमत हैं / केवल पद्मपुराणके कर्ता आचार्य रविषेण वैश्योंका मुख्य कर्म शिल्प बतलाते हैं। ___2. शूद्रवर्णके कर्मफे विषयमें आचार्योंमें मतभेद है। वराङ्गचरितके कर्ता जटासिंहनन्दि और हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन शिल्पको शूद वर्णका कर्म बतलाते हैं / तथा पद्मपुराणके कर्ता रविषेण और महापुराणके कर्ता जिनसेन नीच वृत्तिको शूद्रवर्णका.कर्म बतलाते हैं। प्राचार्य जिनसेनने यह तो नहीं कहा कि विद्या और शिल्प ये शूद्र वर्णके कर्म हैं / किन्तु इनके द्वारा आजीविका करनेवालेको.वे दीक्षाके अयोग्य बतलाते हैं इससे विदित होता है कि इन कर्मोको करनेवालेको भी वे शूद्र मानते रहे हैं। 3. आचार्य गुणभद्र चारों वर्गों के कर्मोंका निर्देश न कर केवल इतना ही कहते हैं कि जिनमें शुक्लध्यानके हेतु जातिनामकर्म और गोत्रकर्म पाये जाते हैं वे तीन वर्ण हैं और शेष सब शूद्र हैं। साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि भरत और ऐरावत क्षेत्रमें तीन वर्षों की सन्तति केवल चतुर्थ कालमें प्रचलित रहती है / . इसलिए उनके मतानुसार तात्पर्य रूपमें यह मान सकते हैं कि इन क्षेत्रोंमें चतुर्थ कालके सिवा अन्य कालोंमें सब मनुष्य मात्र शूद्र होते हैं। - 4. सोमदेव सूरि जैनधर्ममें वर्ण व्यवस्थाको स्वीकार ही नहीं करते। वे इसे लौकिक धर्म कहकर इसका सम्बन्ध वेद और मनुस्मृतिके साथ स्थापित करते हैं। 5. यह तो चार वर्णोंको स्वीकार करने और न करने तथा उनके कोंके विषयमें मतभेदकी बात हुई। दूसरा प्रश्न वर्गों को जन्मसे मानने और.न.माननेके विषयमें है। सो इस विषयमें एकमात्र महापुराणके कर्ता