SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 184 वर्ण, जाति और धर्म .. शुश्रूषा करते हैं वे शूद्र कहलाये। इनके दो मेद हैं-कारु और अकारु.।. कारु शूद्रोंके भी दो भेद हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य / जो प्रजाके बाहर रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं और नाई आदि स्पृश्य शूद्र हैं।' आगे पुनः चार वर्णों के कर्मोंका निर्देश करते हुए शूद्रोंके विषयमें वहाँ बतलाया है कि 'नीचवृत्तिमें नियत हुए शूद्रोंको आदि ब्रह्मा ऋषभदेवने अपने दोनों पैरों के आश्रयसे रचा।' शूद्रोंके कारु और अकारु तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद केवल महापुराणमें ही किये गये हैं। महापुराणके पूर्ववर्ती वराङ्गचरित, पद्मपुराण और हरिवंशपुराणमें ये भेद दृष्टिगोचर नहीं होते। महापुराणमें विवाह, जातिसम्बन्ध और परस्पर व्यवहार आदिके विषयमें और भी बहुतसे नियम दृष्टिगोचर होते हैं जिनका उल्लेख पूर्ववर्ती आचार और पुराणग्रन्थोंमें नहीं किया गया है। शूदोंका उपनयन आदि संस्कार नहीं करना चाहिए, आर्य षटकर्मके भी वे अधिकारी नहीं है / तथा दीक्षा योग्य केवल तीन वर्ण हैं इन सब बातोंका विधान भी महापुराणमें ही किया गया है, इससे पूर्ववतो किसी भी प्राचार और पुराण ग्रन्थमें नहीं / स्पष्ट है कि शूद्रवर्ण और विवाह आदिके विषयमें ये सब परम्पराएँ महापुराण कालसे प्रचलित हुई हैं। . ___ इसके बाद उत्तरपुराणका स्थान है। इसमें जो मनुष्य शुक्लध्यानको नहीं प्राप्त होते उन सबको शूद्र कहा है। इस लक्षणके अनुसार इस पञ्चम कालमें चारों वर्णो के जितने भी मनुष्य हैं वे सब शूद्र ठहरते हैं / इतना ही नहीं, चतुर्थकालमें जो मनुष्य शुक्लध्यानको नहीं प्राप्त हुए वे भी शूद्र ठहरते हैं / आचार्य गुणभद्रने शूद्रवर्ण और इतर तीन वर्षों के मध्य भेदक रेखा शुक्लध्यानके आधारसे खींची है यह इसका तात्पर्य है। पण्डित प्रवर आशाधर जी इसी व्याख्याको प्रमाण मानते हैं / ___ उत्तरपुराणके बाद यशस्तिलकचम्पूका स्थान है / इसके कर्ता सोमदेवसूरिने स्पष्ट कह दिया है कि चार वर्ण और उनके कर्म यह सब लौकिक धर्म है और इसका आधार वेद और मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy