________________ वर्णमीमांसा 177 का व्यवहार स्वतःसिद्ध होते हुए उसमें आगमको दुहाई देना भी व्यर्थ है / ऐसी सब लौकिक्र विधि, जिससे सम्यक्त्वकी हानि नहीं होती और व्रतोंमें दूषण नहीं लगता, जैनोंको प्रमाण है।' अपने इस कथनकी पुष्टिमें वे नीतिवाक्यामृतमें पुनः कहते हैं 'चार वेद हैं / शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दस् और ज्योतिष ये छह उनके अङ्ग हैं / ये दस तथा इतिहास, पुराण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र ये चौदह विद्यास्थान त्रयी कहलाते हैं। त्रयीके अनुसार वर्ण और आश्रमोंके धर्म और अधर्मकी व्यवस्था होती है / स्वपक्षमें अनुराग होनेसे तदनुकूल प्रवृत्ति करते हुए सब मिल कर लोकव्यवहारमें अधिकारी हैं / धर्मशास्त्ररूप स्मृतियाँ वेदार्थका संग्रह करनेवाली होनेसे वेद ही हैं। अध्ययन, यजन और दान ये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के समान धर्म हैं। तीन वर्ण द्विजाति हैं। अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह ये मात्र ब्राह्मणों के कर्म हैं / प्राणियोंकी रक्षा करना, शस्त्र द्वारा आजीविका करना, सजनोंका उपकार करना, दीनोंका उपकार करना और रणसे विमुख नहीं होना ये क्षत्रियोंके कर्म हैं / कृषि आदिसे आजीविका करना, निष्कपटभावसे यज्ञ आदि करना, अन्नशाला खोलना, प्याउका प्रवन्ध करना, धर्म करना और वाटिका अादिका निर्माण करना ये वैश्योंके कर्म हैं। तीन वर्षों के आश्रयसे श्राजोविका करना, बढ़ईगिरी आदि कार्य करना तथा नृत्य, गान और भिक्षुओंकी सेवा-शुश्रूषा करना ये शूद्रवर्णके कर्म हैं। जिनके यहाँ . एक बार परिणयन व्यवहार होता है वे सच्छूद्र हैं। जिनका चार निर्दोष है; जो गृह, पात्र और वस्त्र आदिकी सफाई रखते हैं तथा शरीरको शुद्ध रखते हैं वे शूद्र हो कर भी देव, द्विज और तपस्वियोंकी परिचर्या करनेके अधिकारी हैं। क्रूरभावका त्याग अर्थात् अहिंसा, सत्यवादिता, परधनका त्याग अर्थात् अचौर्य, इच्छापरिमाण, प्रतिलोम विवाह नहीं करना और निषिद्ध स्त्रियोंमें ब्रह्मचर्य रखना यह चारों वर्णोंका समान धर्म है। जिस प्रकार सूर्यका दर्शन सबको समानरूपसे होता है उसी प्रकार अहिंसा आदि उक्त