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________________ 176 वर्ण, जाति और धर्म ... नहीं दिया है कि यह वीतराग भगवान् महावीरकी वाणी है, उसे इस रूपमें प्रमाण मानकर अाचरणमें लायो। किन्तु यह कहकर उसका उपदेश दिया है कि लौकिक दृष्टि से इसे प्रमाण मान लेनेमें व्रतं और सम्यक्त्वकी हानि नहीं है / स्पष्ट है कि उन्होंने पारलौकिक (जैन) धर्मसे लौकिक (ब्राह्मण) धर्मको पृथक् करके ही उसका विधान किया है / न तो वे स्वयं अंधेरेमें हैं और न दूसरोंको अधेरेमें रखना ही चाहते हैं / यद्यपि सर्वप्रथम प्राचार्य जिनसेनने ही ब्राह्मणधर्मके क्रियाकाण्डको अपनाया है। परन्तु आचार्य जिनसेनकी प्रतिपादनशैलीसे इनकी प्रतिपादनशैलीमें मौलिक अन्तर है / आचार्य जिनसेन जहाँ भरत चक्रवर्ती जैसे महापुरुषको माध्यम बनाकर ब्राह्मणधर्मके लौकिक क्रियाकाण्डको मुख्यता देकर श्रावकधर्म और मुनिधर्मको गौण करनेका प्रयत्न करते हुए प्रतीत होते हैं वहाँ सोमदेवसूरि उसे अपनानेके लिए इस मार्गको पसन्द नहीं करते / वे स्पष्ट कहते हैं कि यह सब क्रियाकाण्ड जैन आगममें नहीं है, श्रुति और स्मृतिमें है। इतना अवश्य है कि लौकिक दृष्टि से इसे स्वीकार कर लेने पर न तो सम्यक्त्वमें दोष आता है और न व्रतोंकी ही हानि होती है। यही कारण है कि लौकिक और पारलौकिक धर्मके विषयमें तथा वर्णव्यवस्थाके विषयमें उन्होंने जो विचार रखे हैं वे सुस्पष्ट स्थितिको अभिव्यक्त करनेवाले होनेसे मननीय हैं। यशस्तिलकचम्पूमें वे कहते हैं___ 'गृहस्थोंका धर्म दो प्रकारका है-लौकिकधर्म और पारलौकिकधर्म / लौकिकधर्मका अाधार लोक है और पारलौकिक धर्मका आधार श्रागम है। ब्राह्मण आदि सब जातियाँ अनादि हैं और उनकी क्रियाएँ भी अनादि हैं। इसमें वेद और शास्त्रान्तरों (ब्राह्मण, आरण्यक और मनुस्मृति आदि) को प्रमाण मान लेनेमें हमारी (जैनोंकी) कोई हानि नहीं है। रनोंके समान वर्ण अपनी अपनी जातिके आधारसे ही शुद्ध हैं। किन्तु उनके आचारव्यवहारके लिए जैनागमविधि उत्तम है। संसार भ्रमणसे मुक्तिका कारण वेद आदि द्वारा उपदिष्ट वर्णाश्रमधर्मको मानना उचित नहीं है और संसार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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