SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गोत्रमीमांसा 133 भवोंको इसे धारण नहीं करना पड़ता / तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका बन्ध होनेके बाद यदि क्षायिकसम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तो चौथे भवमें मुक्ति लाभ करता है। तथा नरकायु और देवायुका बन्ध होनेके बाद यदि सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तो तीसरे भवमें मुक्ति लाभ करता है। यदि आयुबन्ध नहीं होता है तो उसी भवसे मुक्ति लाभ करता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन होनेके पूर्व चारों आयुओंका बन्ध होना सम्भव है पर क्षायिक सम्यग्दर्शन होनेके बाद यदि आयुबन्ध होता है तो एकमात्र देवायुका ही बन्ध होता है। ऐसा मनुष्य भी तीसरे भवमें मुक्तिलाम करता है। सब चारित्रोंमें क्षायिकचारित्रका जो स्थान है, सब सम्यक्त्वोंमें वही स्थान दायिकसम्यक्त्वका माना गया है। प्रश्न यह है कि जिस सम्यक्त्वका इतना अधिक महत्व है, जो अपनी उत्पत्ति द्वारा मुक्तिको इतने पास ला उपस्थित करता है वह कर्मभूमिज मनुष्योंमें उत्पन्न होता हुआ भी क्या आर्य, म्लेच्छ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन सब प्रकारके मनुष्योंमें उत्पन्न होता है या केवल लोकमें विशिष्ट कुलवाले माने गये मनुष्योंमें ही उत्पन्न होता है ? प्रश्न मार्मिक है। आगम साहित्यमें इसका समाधान किया गया है। वहाँ बतलाया है कि जो कर्मभूमिज मनुष्य नीचगोत्री होते हैं उनमें भी इसकी उत्पत्ति होती है और जो उच्चगोत्री होते हैं उनमें भी इसकी उत्पत्ति होती है। इतना ही नहीं वहाँ तो यहाँ तक बतलाया गया है कि क्षायिकसम्यग्दर्शन सम्पन्न संयतासंयत मनुष्य भी नीचगोत्री होते हैं / इसका तात्पर्य यह है कि नीचगोत्री कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थङ्कर, केवली और श्रुतकेवलीके सन्निकट रह करः क्षायिक सम्यग्दर्शनको भी उत्पन्न करते हैं और योग्य सामग्रीके मिलने पर श्रावकधर्मको भी स्वीकार करते हैं / श्रावकधर्मको स्वीकार करने का अर्थ है पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंको स्वीकार करना / अर्थात् वे श्रावकोंके इन बारह व्रतोंका आचरण करते हुए उच्चगोत्री श्रावकोंके समान जिनदेवकी पूजा करते हैं, मुनियोंको आहार देते हैं,
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy