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________________ 132 . वर्ण, जाति और धर्म र आगममें उच्चगोत्रको भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय दोनों प्रकारका बतलाया है। वहाँपर गुण शब्दका अर्थ संयम और संयमासंयम किया है। मालूम पड़ता है कि इसकी चरितार्थताको ध्यानमें रख कर ही वीरसेन स्वामीने संयतासंयत तिर्यञ्चोंमें उच्चगोत्रकी मान्यताको मुख्यता दी है। . जिसप्रकार संयतासंयत तिर्यञ्चोंमें नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है उस प्रकार संयतासंयत मनुष्योंमें भी नीचगोत्र बदलकर उच्चगोत्र होता है या नहीं होता इस विषयमें विधि-निषेध परक कोई आगम वचन अभी तक हमारे देखनेमें नहीं आया है, इसलिए इस विषयमें हम अभी निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं लिख सकते / परन्तु मनुष्योंमें भी नीचगोत्र बदलकर उच्चगोत्र होना सम्भव है ऐसा माननेमें आगमसे कोई बाधा नहीं आनी चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार संयमासंयमके निमित्तसे तिर्यञ्चोंमें नीचगोत्र. बदलकर उच्चगोत्रकी बात वीरसेन स्वामीने स्वीकार की है। उस प्रकार मनुष्योंमें भी नीचगोत्रका बदलना बन जाता है / यहाँ यह स्मरणीय है कि इस प्रकार होनेवाले गोत्र परिवर्तनमें आत्मशुद्धिमें प्रयोजक चारित्र ही कार्यकारी है, बाह्य वर्णाचार या कुलाचार नहीं। नीचगोत्री संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य___सम्यग्दर्शनके तीन भेद हैं। उनमें से क्षायिक सम्यग्दर्शन सबसे श्रेष्ठ है / यह होता तो चारों गतियोंमें है पर इसका प्रारम्भ केवल मनुष्यगतिमें ही होता है। मनुष्यगतिमें भी यह कर्मभूमिज मनुष्यके ही उत्पन्न होता है, क्योंकि इसकी उत्पत्तिमें प्रधान निमित्त केवली, श्रुतकेवली और तीर्थङ्कर कर्मभूमिमें ही पाये जाते हैं / तात्पर्य यह है कि जिस क्षेत्रमें तीर्थङ्कर आदि होते हैं उस क्षेत्रमें उनके पादभूलमें ही इसकी उत्पत्ति होती है। यह अपने विरोधी कर्मोंका नाश होकर उत्पन्न होता है, इसलिए इसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं / जिस मनुष्यको इसकी प्राप्ति होती है वह या तो उसी भवमें मोद जाता है या तीसरे या चौथे भवमें मोक्ष जाता है। इससे अधिक
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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