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________________ गोत्रमीमांसा जहाँ पर भाववेद और द्रव्यवेदका साम्य है वहाँ पर यह लक्षण घटित हो भी जाय तो क्या इतने मात्रसे इस लक्षणकी सर्वत्र चरितार्थता मानी जा सकती है ? जहाँ पर वेदवैषम्य है वहाँ पर यह लक्षण कैसे चरितार्थ होगा ? अर्थात् नहीं हो सकेगा, क्योंकि जो द्रव्यसे पुरुष है और भावसे स्त्री है या जो द्रव्यसे स्त्री है और भावसे पुरुष आदि है वहाँ पर इस लक्षणकी व्याप्ति नहीं बन सकेगी। जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव दोषसे रहित होता है समीचीन * लक्षण वही माना जा सकता है किन्तु इस लक्षणके मानने पर अव्याप्ति दोष आता है, इसलिए यह समीचीन लक्षण नहीं हो सकता। इससे ज्ञात होता है कि उत्तरकालीन व्याख्याकारोंने वेदनोकषायके अवान्तर भेदोंके जो लक्षण किये हैं वे सर्बथा निर्दोष नहीं हैं। उनके समीचीन लक्षण ऐसे होने चाहिए जो सर्वत्र समानरूपसे चरितार्थ हो सके, अन्यथा वे उनके लक्षण नहीं माने 'जा सकते। इस प्रकार वेदनोकषायोंके लक्षणोंकी . उत्तरकालमें जो गति हुई है वही गति गोत्रके लक्षणों के विषयमें भी हुई है। यहाँ भी गोत्रका लक्षण करते समय न तो इस बातका ध्यान रखा गया है कि उसका ऐसा लक्षण होना चाहिए जो सर्वत्र समानरूपसे घटित हो जाय और न इस बातका ही ध्यान रखा गया है कि गोत्र जीवविपाको कर्म है, अतएव उसके उदयसे होनेवाली नोआगमभावरूप जीवपर्यायका बहिर्मुखी लक्षण करने पर उसको आध्यात्मिकताकी रक्षा कैसे की जा सकेगी? आज कल बहुतसे मनीषियोंके मुखसे यह बात सुनी जाती है कि शास्त्रीय विषयोंका विवेचन करते समय अपने विचार न लादे जायँ। हम उनके इस कथनसे शत-प्रतिशत सहमत हैं। हम भी ऐसा ही मानते हैं। किन्तु उत्तर कालमें भगवद्वाणीके रूपमें जो कुछ लिखा और कहा गया है उसे क्या उसी रूपमें स्वीकार कर लिया जाय, उस पर मूल आगम साहित्यको ध्यानमें रखकर कुछ भी टीका टिप्पणी न की जाय ? यदि उनके कथनका यही तात्पर्य है तब तो त्रिवर्णाचार ग्रन्थ के योनिपूजा' और 'पानके बिना
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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