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________________ 112 वर्ण, जाति और धर्म यथार्थवादी दृष्टिकोण स्वीकार करनेको आवश्यकता-- यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मूल आगम साहित्यमें गोत्रके सामान्य और विशेष लक्षणोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाला गया है / फलस्वरूप उसकी आध्यात्मिकता समाप्त होकर अधिकतर बहिर्मुखी व्याख्याओंने उसका स्थान ले लिया है। एक गोत्र ही क्या वेदनीय कर्म, वेदनोकषाय, नामकर्म और अन्तरायकर्मके ऊपर भी यह कथन शत-प्रतिशत लागू होता है। उदाहरणके तौरपर यहाँ पर हम पुनः बेदनोकषायकी चरचा कर देना इष्ट समझते हैं। जैसा कि कर्म साहित्यमें कर्मोंका विभाग किया गया है उसके अनुसार वेदनोषायके उदयसे होनेवाला स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिमाण जीवकी नोआगमभावरूप पर्याय है, शरीराकार पुद्गलोंकी रचनाविशेष नहीं। फिर भी अधिकतर व्याख्याकारोंने इस तथ्यकी ओर ध्यान न देकर उसको बहिर्मुखी व्याख्याएँ करनेमें ही अपनी चरितार्थता मानी है। दृष्टान्तरूपमें पञ्चाध्यायीको 'लीजिए। उसमें स्त्रीवेद आदिका लक्षण इन शब्दोंमें दिया गया है-- रिरंसा द्रव्यनारीणां पुंवेदस्योदयात्किल / नारीवेदोदयाद्वेदः पुंसां भोगाभिलाषता // 1081 // नालं भोगाय नारीणां नापि पुंसामशक्तितः। अन्तर्दग्धोऽस्ति यो भावः क्लीववेदोदयादिव // 1082 // अर्थात्, पुरुषवेदके उदयसे द्रव्यनारियोंके प्रति रमण करनेकी इच्छा होती है, स्त्रीवेदके उदयसे पुरुषोंके प्रति भोग भोगनेकी अभिलाषा होती है और शक्तिहीन होनेसे जो न तो स्त्रियोंको भोग सकता है और न पुरुषोंको ही भोग सकता है किन्तु भीतर ही भीतर जलता रहता है वह नपुंसकबेद है नो नपुंसकवेदके उदयसे होता है। ( प्रश्न यह है कि क्या स्त्रीवेद नोकषायका कार्य .द्रव्यपुरुषकी और पुरुषवेद नोकषायका कार्य द्रव्यस्त्रीकी अभिलाषा करना हो सकता है ?
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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