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________________ गोत्रमीमांसा 105 प्रभाववश देवलोकका अधिकारी बना था। देखिए परिणामोंको विचित्रता, एक ओर व्रतके प्रभावसे मुनिधर्मका जीवन भर पालन करनेवाला व्यक्ति नरकगामी होता है और दूसरी ओर चाण्डालका निकृष्ट कर्म करनेवाला व्यक्ति भी अन्तिम समयमें प्राप्त निर्मल परिणामोंके कारण देवलोकका अधिकारी होता है। स्पष्ट है कि बाह्य कर्मके साथ जीवनका सम्बन्ध नहीं है / जीवनकी उच्चता और नीचता व्यक्तिकी आभ्यन्तर वृत्ति पर निर्भर है। यही कारण है कि जैनधर्ममें गोत्रका विचार प्राणीकी आभ्यन्तर वृत्तिको दृष्टिमें रखकर किया गया है। विश्वके समस्त प्राणियोंके गोत्र विचारमें न तो वर्णको कोई स्थान है और न वंशानुगत रक्तसम्बन्धको ही। ये सब मर्यादाएं लौकिक और मर्यादित क्षेत्र तक ही सीमित हैं। आभ्यन्तर जीवनमें इनका रञ्चमात्र भी उपयोग नहीं है। प्रत्युत इन लौकिक मर्यादाओंका आग्रह उसकी उन्नतिमें बाधक ही है। . जैनधर्मके अनुसार गोत्रका अर्थ और उसके भेद-- __ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि गोत्र एक प्रकारका नाम है और जैनधर्मके अनुसार व्यक्तिकी आभ्यन्तर वृत्तिके साथ उसका सम्बन्ध होने के कारण वह गुणनाम है। अर्थात् जिस व्यक्तिको ऊँच और नीच जैसी आभ्यन्तर वृत्ति होती है उसके अनुसार वह उच्च या नीच कहा जाता है। आगममें आठ कर्मोंमें गोत्रकर्मका स्वतन्त्र उल्लेख है। वहाँ उसके उच्चगोत्र और नीचगोत्र ऐसे दो भेद करके उन्हें जीवविपाकी प्रकृतियोंमें परिगणित किया गया है। उसे ध्यानमें रख कर विचार करने पर प्रतीत होता है कि जोवकी पर्यायविशेषको उच्च और उससे भिन्न दूसरी पर्यायको नीच कहते हैं। घटखण्डागम निबन्धन अनुयोगद्वार में आठ कर्मोंके निबन्धनका विचार करते हुए कुछ सूत्र आये हैं। उनमें मोहनीय कर्मके समान गोत्रको आत्मामें निबद्ध कहा है। गोत्रकर्म आत्मामें निबद्ध क्यों है इस प्रश्नका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी वहीं उक्त सूत्रकी
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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